-डॉ0 वन्दना सिंह
भारतीय संस्कृति एवं महिलायें
Indian culture and women
Indian culture and women
संस्कृति समस्त व्यक्तियों की मूलभूत जीवन शैली का संश्लेषण होती है मानव की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसकी संस्कृति ही होती है वास्तव में संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसमें रह कर मानव सामाजिक प्राणी बनता हैं संस्कृति का तात्पर्य शिष्टाचार के ढंग व विनम्रता से सम्बन्धित होकर जीवन के प्रतिमान व्यवहार के तरीको, भौतिक, अभौतिक प्रतीको परम्पराओं, विचारो, सामाजिक मूल्यों, मानवीय क्रियाओं और आविष्कारों से सम्बन्धित हैं। लुण्डवर्ग के अनुसार ‘‘संस्कृति उस व्यवस्था के रूप में हैं जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को संरचित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते है।
प्रस्थिति का व्यवस्था एवं भूमिका का निर्वहन कैसे किया जाये यह संस्कृति ही तय करती है किसी भी समाज की अभिव्यक्ति संस्कृति के द्वारा ही होता है। भारतीय संस्कृति एक रूप संस्कृति के एक रूप में विकसित न होकर मिश्रित संस्कृति के रूप में विकसित हुई है।
भारतीय समाज के सभी क्रियाकलाप चाहे वह सामाजिक हो अथवा सांसकृति कोई भी उत्सव हो या त्योहार महिलाओं के बिना अधूरा है। हिन्दू समाज वास्तव में महिला को पुरूषों की अर्द्धागनी मानता है इसलिये कोई भी पुरूष बिना अपनी पत्नी के यज्ञ हवन आदि धार्मिक क्रिया कलाप में अकेले हिस्सा नही ले सकता और न ही पुरूष के द्वारा किया गया कोई भी धार्मिक अनुष्ठान उसकी पत्नी के भाग लिये बिना पूर्ण माना जाता है। वास्तव में हिन्दू महिलाओं के जीवनमें व्रत, पर्व, त्योहार आदि का अत्यधिक महत्व होता है सभी सांस्कृतिक पर्व महिलाओं के विशेष सहभागिता के कारण ही आज भी जीवंत रूप में समाज में मनाये जाते है और धर्म परिवार समाज में नारी के महत्व को प्रकट करते है भारत में स्त्रियों की प्रस्थिति बराबर विवादस्पद रही है एक तरफ उसे महिला मण्डित किया जाता है तो दूसरी तरफ उसे ढोर, गवार, शुद्र, पशु समझा गया है। लेकिन भारतीय समाज एवं संस्कृति में हमेशा से ही महिलाओं का स्थान गौरवपूर्ण रहा है। स्त्रियें की प्रस्थिति में विविधता होते हुये भी हमारी संस्कृति में एक निश्चित विचारधारा है कि भारती स्त्रियाँ पवित्र है ईश्वरीय है पतिव्रता एवं श्रद्धालु है दया और ममता उनमें कुट-कुट कर भरी है।
प्राचीन संस्कृति एवं महिलाये : कन्या का घर में जन्म लेना शगुन माना गया शुद्ध चरित्र वाली नारी को देवी की संज्ञा दी गयी नारी विवाह के सम्बन्ध में ऋग्वेद में अनेको मंत्र मिले जिसमें उस सन्तोत्पत्ति तथा स्वामी का वृद्धावस्था तथा साथ देने का आर्शीवाद दिया गया एक विवाह का प्रचलन रहा पति द्वारा उसे सम्मान दिया गया इसके साथ ही उनका उपनयन संस्कार भी होता स्त्रियाँ दो वर्णां में विभक्त थी प्रथम ब्रम्वादिनी द्वितीय साधारण।
महाकाव्य संस्कृति एवं महिलाये : बाल्मीकि ने महिला को कन्या, पत्नी, माता के रूप में चित्रित किया। रामायण में भी इनका विशद् एवं व्यापक चित्रण हुआ जिसे ‘स्त्री प्रसंग’ के नाम से सम्बोधित किया गया कुंवारी कन्याओं का मांगलिक व शुभ अवसरों पर उपस्थिति अनिवार्य माना गया। कन्यादान पुण्यकारी माना गया। महिलाओं को कर्मकाण्ड, राजधर्म नैतिक व्यवहार सैनिकशिक्षा, इसके अलावा नृत्य, गायन, संगीत वाद्ययन्त्रों की शिक्षा प्रदान की गयी।
महाभारत कालीन संस्कृति एवं महिलाये : महिलाये तत्कालीन समाज एवं संस्कृति में लक्ष्मी के रूप में थी। महिला एवं पुरूष का कर्म क्षेत्र भिन्न था फिर भी वो एक दूसरे के पुरक थे एक दूसरे की सहभागिता अपेक्षित थी। पत्नी पत्नी को जन्म जन्मान्तर का साथी माना जाता।
मौर्यकालीन संस्कृति एवं महिलायें : इस काल में महिलाओं की प्रस्थिति काफी अच्छी नही थी बहुविवाह का प्रचलन, दहेज, पुर्नविवाह, व्याप्त था साथ ही नियोग प्रथा, जातिय विवाह, पर्दा प्रथा भी था। कौटिल्य का मानना था कि 12 वर्ष लड़की एवं 16 वर्ष तक के लड़के का विवाह हो जाना चाहिये, मैगस्थनीज ने भी महिलाओं के खरीद फरोख्त का उल्लेख किया।
गुप्त कालीन संसकृति एवं महिलाये : संस्कृति एवं धार्मिक कृत्यों में महिलाओं की उपस्थिति अनिवार्य थी महिला शिक्षा का प्रसार था पर्दा प्रथा नही था वह सार्वजनिक कार्यां में भाग लेती विवाह के आठ प्रकारो का प्रचलन था। गणिकायें स्त्रियाँ नृत्य, गायन, ललित कलाओं आदि में पारंगत मानी जाती थी समाज में इन्हें अच्छा स्थान तो प्राप्त नही था पर ये उस कालीन संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा थी।
वर्तमान संस्कृति में महिलाये सशक्त रूप में समाने आ रही है इनका धार्मिक सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में बढ़ती भागीदारी महिलाओं में होने वाले विकास की ओर परिवर्तन को इंगित करती है जिससे हमारी संस्कृति अछुती नही रही है। वस्तुत यह बात हमारी आन्तरिक एवं प्राचीन सांस्कृतिक जड़ो को भी हिला रही है लेकिन इसके बावजुद भी भारतीय महिलाओं में विशेषकर हिन्दू महिलाओं में धर्म का विशेष महत्व है पुरूषो ंकी अपेक्षा इनमें धर्म परायणता अधिक होती है जिसके कारण सुख एवं शान्ती, पूर्वजों से चली आ रही मान्यताओं, परिवार के दुसरे सदस्यों का धर्म पालन तथा व्यक्तिगत हितों की पूर्ति मुख्य रूप से होती रहती हैं जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न संस्कारों के प्रयोजन में हिन्दू महिलाओं विशेष रूचि दिखाती है।
भारतीय समाज सहिष्णुतावादी समाज है सारे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां पर भिन्न-भिन्न जाति धर्म एवं भेषभूषा वाले लोग रहते है इतनी सारी विशेषताओं के होते हुये यहाँ के लोगो में समन्वयवादिता और धार्मिक सांस्कृतिक सहिष्णुता के दर्शन होते है। सामान्यतः हिन्दू महिलाये अपने आस पास के दूसरे सम्प्रदाय के लोगों द्वारा मनाये जा रहे पर्वां में भाग लेती हैं।
प्राचीन धार्मिक कृत्यों और संस्कारों से जिस सांस्कृतिक प्रयोजन का उद्भव होता है वह है व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास। भारतीय संस्कृति का इतिहास अति प्राचीन रहा है लेकिन भारतीय संस्कृति उसका समाज एवं संस्थाये आज भी जीवित है यानि लगभग 5000 वर्ष से भारतीय संस्कृति अपनी निरन्तरता बराबर बनायी हुयी है। भारतीय संस्कृति के इतिहास में अनेक उतार-चढ़ाव, उत्थान-पतन, परिवर्तन- परिवर्द्धन और लेने-देने व्याप्त है।
यह सत्य ही कहा गया है कि महिलाये न केवल हमारी वर्तमान मानव जाति का लगभग आधा भाग है बल्कि नई पीढ़ी को जन्म देने वाली सर्जन भी है।
भारतीय संस्कृति में समय-समय पर उत्पन्न कुरीतियों का सामना की सबसे ज्यादा महिलाओं को ही करना पड़ा है। महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के साथ ही भारतीय संस्कृति में भी परिवर्तन स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है भारतीय संस्कृति एवं महिलाओं की प्रस्थिति में गहरा सम्बन्ध है।
**प्रवक्ता-समाजशास्त्र, रामललित सिंह पी0जी0कॉलेज, कैलहट, मीरजापुर।
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