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Yad aati ho tum याद आती हो तुम

याद आती हो तुम Parachhaee.com जानती हो? याद आती हो तुमi जब भी देखता हूँ किसी को किसी का हाथ पकड़ चलते हुए। याद आती हो तुम जब भी सबके बीच कहीं वीराने में भटकता है मेरा मैं रोते हुए। याद आती हो तुम जब भी सुनता हूँ किसी पायल की झंकार किसी संगत से आते हुए। जानती हो? खुद को कितना समझाता हूँ मैं जब भी अकेला होता है मेरा मैं खुद को कितना समझाता हूँ मैं जब भी यादों को जबरदस्ती भगाता हूँ मैं खुद को कितना समझाता हूँ मैं जब भी खुद को बहुत समझदार बताता हूँ मैं जानती हो? फिर याद आती हो तुम जब भी किसी और के बारे में सोचता हूँ मैं फिर याद आती हो तुम जब भी कभी अपनी सांसो को महसूस करता हूँ मैं फिर याद आती हो तुम जब भी कभी बैचैनी में किसी को ढूंढता हूँ मैं जानती हो? फिर खुद को कितना समझाता हूँ मैं जब भी अकेले कहीं निकालकर वादियों में खो जाने का मन करता है। फिर खुद को कितना समझाता हूँ मैं जब भी किसी को थोड़ा सताने और जलाने का मन करता है। फिर खुद को कितना समझाता हूँ मैं जब भी जिंदगी के उन बीते पलों में खो जाने का मन करता है। जानती हो ...

जब 'मौत से ठन गई' थी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की, इस कविता में दिखी थी जीत........

जब 'मौत से ठन गई' थी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की, इस कविता में दिखी थी जीत........ अटल बिहारी वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक राजनेता के तौर पर जितने सराहे गए हैं, उतना ही प्यार उनकी कविताओं को भी मिला है। उनकी कई कविताएं उनके व्यक्तित्व की परिचायक बन गईं तो कइयों ने जीवन को देखने का उनका नजरिया दुनिया के सामने रख दिया। लंबे वक्त से बीमार चल रहे अटल को बुधवार को लाइफ सपॉर्ट पर रखा गया तो देश-दुनिया में उन्हें मानने वाले लोगों के मन में अपने चहेते राजनेता की चिंता घर कर गई ।  साल 1988 में जब वाजपेयी किडनी का इलाज कराने अमेरिका गए थे तब धर्मवीर भारती को लिखे एक खत में उन्होंने मौत की आंखों में देखकर उसे हराने के जज्बे को कविता के रूप में सजाया था। आज एक बार फिर याद आ रही यह कविता थी- 'मौत से ठन गई'... ठन गई ! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,  रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई। मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जिंदगी सिलसिला, आज कल की नह...

पंद्रह अगस्त का दिन कहता (15 August ka Din Kahata Hai..)

पंद्रह अगस्त का दिन कहता  www.parachhaee.com पंद्रह अगस्त का दिन कहता -------------- आज़ादी अभी अधूरी है। सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है।। जिनकी लाशों पर पग धर कर आज़ादी भारत में आई। वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई।। कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आँधी-पानी सहते हैं। उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं।। हिंदू के नाते उनका दु:ख सुनते यदि तुम्हें लाज आती। तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती।। इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है। इस्लाम सिसकियाँ भरता है, डालर मन में मुस्काता है।। भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं। सूखे कंठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं।। लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया। पख्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन गुलामी का साया।। बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है। कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है।। दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुन: अखंड बनाएँगे। गिलगित से गारो पर्वत तक आज़ादी पर्व मनाएँगे।। ...

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से (द्वारा गोपाल दास नीरज)

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से  - गोपालदास "नीरज" स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे। नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे। क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे साँस की शराब का खुमार देखते रहे। कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे। हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ और साँस यूँ क...

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है (द्वारा गोपालदास जी नीरज)

छिप-छिप अश्रु बहाने वालो !  मोती व्यर्थ बहाने वालो ! कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है। सपना क्या है? नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी, और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालो। डूबे बिना नहाने वालो ! कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।  माला बिखर गयी तो क्या है ख़ुद ही हल हो गई समस्या, आँसू गर नीलाम हुए तो समझो पूरी हुई तपस्या, रूठे दिवस मनाने वालो ! फटी कमीज़ सिलाने वालो ! कुछ दीपों के बुझ जाने से आँगन नहीं मरा करता है।  खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर केवल जिल्द बदलती पोथी । जैसे रात उतार चाँदनी पहने सुबह धूप की धोती वस्त्र बदलकर आने वालो ! चाल बदलकर जाने वालो ! चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। लाखों रोज गगरियाँ फूटीं शिकन न आई पनघट पर लाखों बार किश्तियाँ डूबीं चहल-पहल वो ही है तट पर तम की उमर बढ़ाने वालो लौ की आयु घटाने वालो लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है। लूट लिया माली ने उपवन लुटी न लेकिन गन्ध फूल की, तूफ़ानों तक ने छेड़ा प...

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे (Banaya hai maine ye ghar dhire dhire) By Dr. Ram Darash Mishra

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे, खुले मेरे ख्वावों के पर धीरे-धीरे। किसी को गिराया न खुद को उछाला, कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे। जहां आप पहुंचे छलांगे लगाकर, वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे। पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी, उठाता गया यूंही सर धीरे-धीरे। न हंस कर, न रोकर किसी ने उड़ेला, पिया खुद ही अपना जहर धीरे-धीरे। गिरा मैं कभी तो अकेले में रोया, गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे। जमीं खेत की साथ लेकर चला था, उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे। मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी, मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे। साभार- साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डॉ. रामदरश मिश्र  (हिन्दुस्तान (फुरसत) 1जुलाई 2018 को प्रकाशित)

सर पे कितना बोझ उठाये बैठा हूँ न जाने कितनों से खार खाये बैठा हूँ

अपनों से ही अपना सब कुछ लुटाये बैठा हूँ अपनों से ही अपना सब कुछ लुटाये बैठा हूँ......... सर पे कितना बोझ उठाये बैठा हूँ  न जाने कितनों से खार खाये बैठा हूँ  मेरी चुप्पी को कमज़ोरी समझते है वो  मैं तो अंगार को बस दिल में दबाये  बैठा हूँ  तमाशे पे तमशा लगा रहे  हर जगह  बेगैरतो को अपना खैरख्वाह बनाये बैठा हूँ  हर सफ़ेद लिबास की चमक अब मैली सी  लगे इस हमाम में सबको नंगा  नहाये  देखा हूँ  आँखों से काजल तक चुरा लेते है  वो  जिन्हें इस मुल्क का पहरेदार लगाये  बैठा हूँ  बगावत के सिवा अब बचा क्या  मेरे पास ? अपनों से ही अपना सबकुछ लुटाये बैठा हूँ...

देखते ही देखते जवान, माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं (Maa aur Pita ko Samarpit Kavita)

देखते ही देखते जवान, माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं.. देखते ही देखते जवान, माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं.. सुबह की सैर में, कभी चक्कर खा जाते है, सारे मौहल्ले को पता है, पर हमसे छुपाते है... दिन प्रतिदिन अपनी, खुराक घटाते हैं, और तबियत ठीक होने की, बात फ़ोन पे बताते है... ढीली हो गए कपड़ों, को टाइट करवाते है, देखते ही देखते जवान, माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं... किसी के देहांत की खबर, सुन कर घबराते है, और अपने परहेजों की, संख्या बढ़ाते है, हमारे मोटापे पे, हिदायतों के ढेर लगाते है, "रोज की वर्जिश" के, फायदे गिनाते है, ‘तंदुरुस्ती हज़ार नियामत', हर दफे बताते है, देखते ही देखते जवान, माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं.. हर साल बड़े शौक से, अपने बैंक जाते है, अपने जिन्दा होने का, सबूत देकर हर्षाते है... जरा सी बढी पेंशन पर, फूले नहीं समाते है, और FIXED DEPOSIT, रिन्ऊ करते जाते है... खुद के लिए नहीं, हमारे लिए ही बचाते है, देखते ही देखते जवान, माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं... चीज़ें रख के अब, अक्सर भूल जाते है, फिर उन्हें ढूँढने में, सारा घर सर पे उठाते है... और एक दूसरे को, बात बात में...

भारत भारत मेरा परिचय (Bharat Bharat mera parichay) INDIA INDIA

भारत भारत मेरा परिचय मैं था  भारत, मैं हूँ भारत, भारत-भारत  मेरा परिचय  मैं नवल सृष्टि का सृजन गान, गिरिराज खड़ा इसका प्रमाण. गंगा की निर्मल सुधा-राशि में ,बहता मेरा मनः प्राण मेरे चरणों को छू-छूकर, सागर करता मुझको प्रणाम मेरे ही अन्तःस्थल में तो, है छुपा हुआ हर ब्रह्मज्ञान यदि मैनें सर्वश त्याग दिया, तो तुम करते हो क्यों संचय मैं था भारत, मैं हूँ भारत, भारत-भारत मेरा परिचय मैं मनु-सतरूपा का संयोग, मैं नव जीवन का नव प्रयोग मैं बोधिवृक्ष की सघन छाँव, मैं ही गौतम का सत्यबोध मैं शंखनाद हूँ जीवन का, मैं ही वेदों का नवल शोध मैं ही मधुता का मृदुल गान, मैं ही कटुता पर प्रबल चोट मैं विजय सारथी सदा रहा तो तुम भी कर लो दृढ निश्चय मैं था भारत , मैं हूँ भारत, भारत-भारत मेरा परिचय मैं कुरुक्षेत्र का हाहाकार, मैं अर्जुन धनुहा की टंकार मैं चक्रव्यूह का भेदमंत्र, मैं कृष्ण कण्ठ नव वेद सार मैं विवश द्रौपदी की पीड़ा,मैं सभा मध्य में पट-प्रसार मैं जीवन के उस पार कहीं हूँ, खुला सदा ही मोक्ष द्वार यदि मैं युद्धों से नहीं डरा, तो त...

बेटी की अंतिम विदाई कविता Daughter's farewell poem

बेटी की अंतिम विदाई कविता Daughter's final farewell poem ★ ★ एक कवि नदी के किनारे खड़ा था ! तभी वहाँ से एक लड़की का शव नदी में तैरता हुआ जा रहा था।  तो कवि ने उस शव से पूछा ---- कौन हो तुम ओ सुकुमारी , बह रही नदियां के जल में ? कोई तो होगा तेरा अपना , मानव निर्मित इस भू-तल में ! किस घर की तुम बेटी हो , किस क्यारी की कली हो तुम ? किसने तुमको छला है बोलो , क्यों दुनिया छोड़ चली हो तुम ? किसके नाम की मेंहदी बोलो , हांथों पर रची है तेरे ? बोलो किसके नाम की बिंदिया , मांथे पर लगी है तेरे ? लगती हो तुम राजकुमारी , या देव लोक से आई हो ? उपमा रहित ये रूप तुम्हारा , ये रूप कहाँ से लायी हो ? ★ ★ कवि की बातें सुनकरलड़की की आत्मा बोलती है................ कविराज मुझ को क्षमा करो , गरीब पिता की बेटी हूं ! इसलिये मृत मीन की भांती , जल धारा पर लेटी हुँ ! रूप रंग और सुन्दरता ही , मेरी पहचान बताते है ! कंगन , चूड़ी , बिंदी , मेंहदी , सुहागन मुझे बनाते है !   पिता के सुख को सुख समझा , पिता के दुख में दुखी थी मैं ! जीवन के इस तन्हा पथ पर , पति के सं...