युवा विधवाएं और अप्रतिमानहीनता
भारत में युवा विधवाएं |
‘‘जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते है’’ ऐसी वैचारिकी से पोषित हमारी वैदिक संस्कृति, सभ्यता के उत्तरोत्तर विकास क्रम में क्षीण होकर पूर्णतः पुरूषवादी मानसिकता से ग्रसित हो चली है। विवाह जैसी संस्था से बधे स्त्री व पुरूष के सम्बन्धों ने परिवार और समाज की रचना की, परन्तु पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री का अकेले जीवन निर्वहन करना अर्थात विधवा के रूप में, किसी कलंक या अभिशाप से कम नहीं है।
भारतीय समाज में बाल -विवाह की प्रथा कानूनी रूप से निषिद्ध होने के बावजूद भी अभी प्रचलन में है। जिसके कारण एक और सामाजिक समस्या के उत्पन्न होने की संभावना बलवती होती है और वो है युवा विधवा की समस्या। चूंकि बाल-विवाह में लड़की की उम्र, लड़के से कम होती है। अतः युवावस्था में विधवा होने के अवसर सामान्य से अधिक हो जाते है और एक विधवा को अपवित्रता के ठप्पे से कलंकित बताकर, धार्मिक कर्मकाण्ड़ों, उत्सवों, त्योहारों एवं मांगलिक कार्यों में उनकी सहभागिका को अशुभ बताकर, उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को पूर्ण रूपेण प्रतिबंधित कर दिया गया जाता है। साथ ही उनको कई प्रकार के सामाजिक निषेधों का पालन करना होता है जो उसकी शारीरिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधक होते है। इस तरह वह सामाजिक अप्रतिमानिता की ओर अग्रसर होती है। प्रस्तुत शोध-पत्र में दुर्खीम एवं मर्टन के अप्रतिमानहीनता के सिद्धांत के आधार पर यह विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है कि भारतीय समाज की संरचना युवा विधवाओं पर सामाजिक आदर्शो एवं रूढ़ियों के अनुरूप व्यवहार करने के स्थान पर विचलित व्यवहार के लिए एक निश्चित दबाव डालती है।
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