Background of Separatism in Jammu and Kashmir and Article 370 (जम्मू कश्मीर के अलगाववाद की पृष्ठभूमि और धारा ३७०
जम्मू कश्मीर के अलगाववाद की पृष्ठभूमि और धारा ३७०
भारतीय संविधान की
धारा 370 एक अस्थायी प्रकृति का अनुच्छेद है। जो कश्मीर राज्य के अस्थाई
संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधानों से संबन्धित है, जो भारतीय
संविधान के भाग 11 के तहत, जम्मू और
कश्मीर राज्य भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में अनुच्छेद 370 के
तहत विशेष दर्जे को प्राप्त करता है। जो भारतीय संविधान के धारा-1 के अनुसार भारत राज्य क्षेत्र तथा राज्य पूनर्गठन अधिनियम-1956 तथा संविधान अधिनियम सात के अनुसार भारतीय संघ राज्यों की सूची में
वर्णित एक विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त करता है। देश को आजादी मिलने के बाद से
लेकर अब तक यह धारा भारतीय राजनीति में बहुत विवादित रही है। जिसके कारण स्वतंत्र
भारत में आज भी कश्मीर का मुद्दा अलगाव की समस्या को अपने आप में समेटे हुए एक
गम्भीर समस्या के रूप में भारतीय लोकतंत्र के सम्मुख एक चुनौती प्रस्तुत कर रहा
है।
भौगोलिक रूप से भारत का एक अभिन्न हिस्सा
पर संवैधानिक रूप से अंशतः अलग व विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त यह राज्य आर्थिक
विकास के लिए औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के अभाव की समस्या से जूझ रहा है। केन्द्र
सरकार की नीतियों एवं नियोजन के प्रति असंतोष एवं आतंकवाद की समस्या से ग्रस्त यह
राज्य अपने आप को उपेक्षित मानकर पृथकता के विचार को पुष्पित एवं पल्लवित कर रहा
है।
1.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि –
जम्मू और कश्मीर राज्य पर पहले हिन्दू
राजाओं और उसके बाद मुस्लिम सुल्तानों ने शासन किया। 1756 के आरम्भ में अफगान शासन के बाद 1819 में इसे
महाराजा रणजीत सिंह ने इसे पंजाब राज्य में मिला लिया। 1846
में रणजीत सिंह ने जम्मू कश्मीर राज्य को राजा गुलाब सिंह को दे दिया। 1848 में अमृतसर में राजा गुलाब सिंह और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच एक समझौता
हुआ, इस समझौते के परिणाम स्वरूप कश्मीर घाटी को ईस्ट
इण्डिया कम्पनी से गुलाब सिंह ने 75 लाख रूपयों में खरीद
लिया। इस प्रकार जम्मू कश्मीर राज्य एक देशी रियासत थी जिस पर राजा गुलाब सिंह के
वंशज राज्य कर रहे थे। सितम्बर 1625 में महाराजा हरि सिंह के
राज्य की गद्दी पर सत्तारूढ़ होने पर जम्मू कश्मीर राज्य में एक नये युग का आरम्भ
हुआ। इसके पश्चात् व्यवस्था के प्रति असंतोष ने राज्य में अमन और शांति पर
कुठाराघात किया और अपने आपको ठगा समझकर लोंगो ने व्यवस्था और शासन के प्रति
विद्रोह शुरू कर दिया जो अलग-अलग समयों में अनेक नेतृत्व कर्ताओं द्वारा आगे बढ़ाया
गया। जिसमें सबसे पहल का कार्य शंकर लाल कौल की अध्यक्षता में ‘‘कश्मीर, कश्मीरियों के लिए’’ नामक
आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ, जो कश्मीर को भारतीय संघ से अलग
होने के एक रूप को प्रदर्शित करता है। 1927 में महाराजा हरि
सिंह ने ‘स्टेट सब्जेक्ट कानून’ लागू
करके कश्मीर से बाहर लोगों के लिए सरकारी नौकरी और अचल संपत्ति खरीदने पर पाबंदी
लगा दी। 1930 में शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में कुछ
मुस्लिम स्नातकों को साथ लेकर रीडिंग रूल पार्टी का गठन किया गया। जिसकी नीतियों
के कारण मुस्लिम महाराजा हरि सिंह का विरोध करने लगे, और
अन्ततः कश्मीर के मुस्लिमों को राजा हरि सिंह से अलग करने का कारण बनी। जिसके कारण
कश्मीर के हिन्दू और मुसलमान अपने आपकों एक दुसरे से अलग समझने लगे। आगे चलकर यह
संघर्ष और बढ़ा शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया, जिसके कारण अलगाव की यह सोच और अधिक मुखर और सुदृढ़ हो गयी। इसी दौरान शेख
अब्दुल्ला ने राजा हरि सिंह के विरूद्ध प्रजातांत्रिक अधिकारों के हनन व मुसलमानों
के ऊपर अत्याचार के खिलाफ एक विरोध की परिणिति के रूप में एक साम्प्रदायिक संघर्ष
शुरू कर दिया। जिससे वर्तमान कश्मीर की जनता में एक टकराव उत्पन्न हो गया
परिणामस्वरूप हिन्दु एवं मुसलमानों में एक दुसरे के प्रति भावनात्मक विद्वेष की
भावना तेजी से पनपने लगी। तथा जून 1931 में कश्मीर के अन्दर
एक साम्प्रदायिक दंगा प्रारम्भ हो गया। जिसमें हिन्दुओं को काफी हानि हुई, विस्तृत जानकारियों से पता चलता है कि यह दंगा इसी उद्देश्य को लेकर किया
गया था, जहाँ हिन्दुओं को जान की क्षति उठानी पड़ी क्यों कि
शेख अब्दुला ने हिन्दुओं के लिए इस भयावह दंगे में कोई आवाज नहीं उठायी। वे केवल
मुसलमानों के ही पक्षधर बने रहे और जम्मू कश्मीर साम्प्रदायिक दंगा भयानक रूप धारण
करता गया। अपने अनुकूल प्राप्त स्थिति का शेख अब्दुल्ला ने खूब फायदा उठाया। 1945 में जब शेख अब्दुल्ला ‘नेशनल कांफं्रेस के अध्यक्ष
बने तो उन्होंने कश्मीर को एक नयी रूप रेखा व आयाम देने का प्रयास किया, जहाँ उन्होंने जम्मू और कश्मीर दोनों पर ध्यान देने के बजाय केवल कश्मीर
पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जिससे वहां के हिन्दुओं में शेख अब्दुल्ला और
मुसलमानों के प्रति आक्रोश पैदा होता गया।
2.
पाकिस्तान का आक्रमण एवं
जम्मू कश्मीर का भारत में विलय –
15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी प्रभुसत्ता समाप्त हो जाने के पश्चात् हिन्दुस्तान की सभी
छोटी-बड़ी रियासतों का उनकी इच्छानुसार भारत और पाकिस्तान में तत्काल विलय हो गया
परन्तु दो रियासतों जूनागढ़, हैदराबाद का विलय कुद विलम्भ के
पश्चात् भारतीय संघ में विलय हो गया। सभी देशी रियासतों के विलय के पश्चात् कश्मीर
ही एक ऐसा राज्य था जिसने किसी भी विकल्प को स्वीकार नहीं किया था। उस समय वहां के
शासक महाराजा हरि सिंह थे विलय के निर्णय में असमंजस व देरी के कारण 24 अक्टूबर 1947 को उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त के
कबालियों के सहयोग से पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी पर आक्रमण कर दिया ताकि अचानक
युद्ध से विवश होकर महाराजा हरि सिंह अपनी रियासत जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में
विलय कर दें। तब महाराजा हरि सिंह ने देश की अन्य 560 देशी
रियासतों के शासकों द्वारा स्वीकार किये गए विलय पत्र के अनुसार 26 अक्टूबर 1947 भारत से समझौता कर कश्मीर राज्य का
विलय कर लिया और भारत से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में सहायता की मांग की। इस
समझौते के अनुसार रक्षा एवं विदेशी मामले तथा संचार के सभी अधिकार जम्मू कश्मीर की
ओर से भारत को दे दिए गये। अन्य देशी रियासतों के समान ही 1950 में जम्मू कश्मीर राज्य को भारत के संविधान की प्रथम अनुसूची भाग-ख के
राज्यों की सूची में शामिल किया गया जम्मू एवं कश्मीर राज्य 27 अक्टूबर 1947 को तत्काल प्रभाव से भारतीय
स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत भारतीय डोमिनियन में
सम्मिलित हो गया। तथा भारतीय गवर्नन जनरल लार्ड माउण्टवेटन के आदेशानुसार
जम्मू-कश्मीर राज्य में तत्काल ही शासन व्यवस्था लागू कर दिया गया।
3.
भारत सरकार का
जम्मू-कश्मीर की जनता को दिया आश्वासन –
28 अक्टूबर 1947 को भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पाकिस्तान के
प्रधानमंत्री को तार करके सूचना दी कि ‘‘भारतीय सरकार ने जो
कार्यवाही की है वह श्रीनगर पर आने वाले संकट की परिस्थितियों को देखते हुए उनपर
थोपा गया है। जम्मू कश्मीर ने भारत विलय के समझौते के बाद भारत सरकार ने जम्मू
कश्मीर की जनता को यह आश्वासन दिया था कि राज्यारोहण के संदर्भ में यह स्पष्ट कर
देना उचित है कि जम्मू कश्मीर में विलय का अन्तिम निर्णय जम्मू-कश्मीर की संविधान
सभा में होगा। क्योंकि भारतीय सरकार उन पर अपना निर्णय थोपने की इच्छा नहीं रखती
है, सरकार विलय के संदर्भ में जम्मु-कश्मीर की जनता की
इच्छाओं को स्वीकर करेगी, पर यह सब तब तक सम्भव नहीं है जब
तक कि कश्मीर घाटी में शांति की स्थापना के साथ ही कानून व्यवस्था लागू न हो जाए।
इस आश्वासन के देने के पीछे यह पृष्ठभूमि थी कि भारत संघ में जम्मू-कश्मीर के विलय
से बहुत पहले से ही, यहाँ की जनता, वहाँ
के वंशानुगत शासन के विरूद्ध आन्दोलन कर रही थी तथा ऐसी स्थिति में वहाँ की जनता
को सन्तुष्ट करना आवश्यक था। परन्तु यह आश्वासन जम्मू-कश्मीर की जनता को दिया गया
था किसी तीसरे पक्ष या विदेशी राज्य को दिया गया आश्वासन नहीं था। अतः इस बारे में
तीसरा पक्ष न तो आश्वासन का दावा कर सकता है और न ही इससे किसी प्रकार का लाभ
प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार जम्मू कश्मीर राज्य का भारत में विलय हो जाने के
पश्चात् भी भारतीय सरकार ने इस पर अपना पूर्ण अधिकार नहीं समझा बल्कि उसने इसे कई
स्वतंत्र अधिकार प्रदान किए, जो देश के अन्य प्रान्तों के
राजाओं के प्राप्त न थे तथा यह घोषणा कि 1947 के भारतीय
स्वतंत्रता अधिनियम के तहत जम्मू कश्मीर के महाराजा स्वतंत्र है और उन पर किसी
प्रकार की कोई पाबंदी नहीं है।
4.
जम्मू-कश्मीर संविधान सभा
द्वारा विलय की पुष्टि –
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत जम्मू-कश्मीर विलय पत्रों पर तात्कालिक गवर्नर माउंण्टवेटन के 27 अक्टूबर 1947 के हस्ताक्षर के पश्चात्, जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत संघ में विलय के समझौते के पूर्ण हो जाने के
बाद जम्मू-कश्मीर राज्य में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में एक लोकप्रिय सरकार का
गठन हुआ। इसने संविधान सभा में इस समझौते की पुष्टि करवाई तथा संविधान सभा ने 1951 में राजा हरि सिंह के पुत्र कर्ण सिंह को सदर-ए-रियासत या गर्वनर नियुक्त
किया। इसके तत्पश्चात् वहां कानून व्यवस्था निर्माण के लिए संविधान सभा का गठन
किया किया गया जिसने अपनी संस्तुतियों के पश्चात् 6 फरवरी 1954 को संविधान तौर पर जम्मू एवं कश्मीर राज्य को भारतीय संध में विलय का
अनुमोदन किया। भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति के पश्चात् उक्त संस्तुतियों को 14 मई 1954 को भारतीय संविधान में धारा 370 के रूप में सम्मिलित कर लिया गया।
5.
जम्मू -कश्मीर राज्य के
संविधान का निर्माण -
जम्मू-कश्मीर राज्य की संविधान सभा ने जो
संविधान बनाया उसे 13 खण्डों, 159 अनुच्छेदों तथा 6 अनुसूचियाँ में विभक्त कर पूर्ण
किया गया है। इसमें भाग-2, खण्ड-3 के
अनुसार ‘‘जम्मू-कश्मीर राज्य भारत संघ का एक अखण्ड भाग है और
रहेगा।’’ इसमें किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं हो सकता है। 1966 में जम्मू कश्मीर के संविधान में एक संशोधन करके सदर-ए-रियासत के पदनाम
को परिवर्तित करके राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री के पदनाम से सुशोभित किया गया। भारत
के संविधान के सातवें संशोधन के द्वारा भारत के राज्यों के ‘क’,
‘ख’ आदि के भेद को समाप्त करके सभी राज्यों को
एक ही प्रकार के राज्य बना दिए गए। इस समय भारत संघ के राज्यों का पुर्नगठन किया
गया था। इस कारण संविधान के अनुच्छेद 370 को उस राज्य से
आसानी से हटाया जा सकता था। किन्तु ऐसा नहीं किया गया और जम्मू-कश्मीर के
राज्य को उसका संविधान जारी रखने की
स्वीकृति दी गयी। इस संविधान को 26 जनवरी 1957 से जम्मु-कश्मीर राज्य पर लागू किया गया था। भारत के संविधान के अनुच्छेद
370 के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य का अलग संविधान, अलग पहचान और अलग ध्वज है। भारत के अन्य राज्यों में किसी के पास उसका
अपना कोई विशेष व अलग झण्डा नहीं है तथा न ही उन्हें किसी विशेष अनुच्छेद के तहत
विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया गया है। जिससे यह प्रतीत होता है कि जम्मू
कश्मीर पाकिस्तान की तरह स्वतंत्र नहीं है परन्तु वह भारत में सम्मिलित होते हुए
भी अपनी एक अलग पहचान रखता है। जिसके लिए जम्मू कश्मीर ने संघ सरकार के सामने अपनी
कुछ विशेष शर्त भी रखी है और अनुच्छेद 144 के तहत उसका अपना
अलग झण्डा और अनुच्छेद 145 के तहत उसकी अपनी राजभाषा उर्दू
है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें