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Reality of the Right to Information Act 2005 (सूचना का अधिकार अधिनियम की वास्तविक दशा का मूल्यांकन (R T I Act))

सूचना का अधिकार अधिनियम की वास्तविक दशा का मूल्यांकन 

सारांश-
सूचना का अधिकार अधिनियम - 2005, इसका इस्तेमाल करने से आपको बिजली या पानी के मीटर का नया कनेक्शन नहीं मिल सकता, लेकिन सूचना का अधिकार अधिनियम आपको इस बात का पता लगाने में मददगार हो सकता है कि आपके आवेदन पर कार्यवाई करने की जिम्मेदारी किसकी है, कार्यवाई में क्या प्रगति हुई है, सम्बन्धित विभाग के सेवा मानदण्डों के अनुसार आपको कब तक कनेक्शन मिल जाना चाहिए था या फिर आपके मामले में कार्यवाई में देरी क्यों हुई है? जी हॉ सूचना का अधिकार अधिनियम के लागू हो जाने के बाद भारत के सभी नागरिकों को सूचनाएं मांगने और कार्यदायी संस्था द्वारा जबाब पाने का अधिकार है। यह अधिनियम इस बात को मान्यता प्रदान करता है कि ‘‘भारत जैसे लोकतंत्र में सरकार के पास मौजूद सभी सूचनाएं अंततः जनता के लिए एकत्रित की गई सूचनाएं हैं।’’ नागरिकों को सूचनाएं उपलब्ध कराना सरकार के कामकाज का एक सामान्य अंश भर है क्योंकि जनता का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी उनके पैसे से या फिर उनके नाम पर क्या करते हैं या कर रहे हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम के लागू करने के पीछे यह मान्यता है कि सरकार द्वारा अपने राष्ट्र के नागरिकों को व्यवस्था संचालन से जुड़ी सूचनाओं का आदान-प्रदान करना लोकतंत्र के शुचारू संचालन के लिए लाभदायक और स्वास्थ्यकर होता है। 
प्रस्तुत लेख में जन सूचना अधिकार अधिनियम के विविध आयामों एवं उसके कारण सरकारी तंत्रों में के कार्य पद्धति में आए बदलाओं से जनता को हो रहे फायदों पर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया जाएगा।
’’’’’

प्रस्तावना-
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, लेकिन हमारे यहॉ प्राचीन यूनान के नगर राज्यों में प्रचलित प्रत्यक्ष लोकतंत्र का स्वरूप नहीं है, क्योंकि यह दुनिया का सर्वप्रथम लोकतंत्र था और वर्तमान समय में इस प्रत्यक्ष लोकतंत्र के कुछ अंश स्विट्जरलैण्ड के कुछ कैटनों तथा अमरीका के कुछ छोटे नगरों में आज भी ऐसी पद्धति देखने को मिलती है, जहॉ कि इस पद्धति में नागरिक स्वयं ही शासकीय कार्यों में हिस्सा लेते हैं। शासन में भागीदारी किसी भी लोकतंत्र का मूलमंत्र है अर्थात् ‘जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन’। नागरिकों के रूप में हमें केवल चुनावों के वक्त ही नहीं, बल्कि नीतिगत निर्णयों, कानूनों और योजनाओं के निर्माण के वक्त और परियोजनाओं तथा गतिविधियों का  कार्यान्वयन करते समय भी दैनिक आधार पर भागीदारी करने की जरूरत होती है। वह सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और जबाबदेही को भी बढ़ावा देती है। ऐसा सच्चा लोकतंत्र तभी संम्भव हो सकता है, जब शासन-प्रशासन को देश और राज्य की जनता के प्रति अधिकाधिक जबाबदेह बनाया जा सके। ‘‘यदि सरकार की नीतियों में पारदर्शिता हो, तो जनता का शासन में विश्वास बढ़ता है, यदि सरकार के कार्यकरण में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का अभाव हो, तो शासन की नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों को और प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है, बल्कि नागरिकों को सरकार की नीयत पर संदेह होने लगता है। नागरिक स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं यही नहीं अपने आपको प्रतिनिधियों द्वारा ठगा गया मानने लगते हैं।’’  अतः शासन-प्रशासन की निरंकुशता को नियंत्रित रखते हुए किस तरह से आम व्यक्तियों के प्रति अधिक जबाबदेह, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, संवेदनशील, उत्तरदायित्व पूर्ण बनाया जाए? क्योंकि हमारे देश में नागरिकों के हित से जुड़े हुए, ज्यादा से ज्यादा कार्यों का निष्पादन संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से किया जाता है।
लेकिन वास्तव में देश का प्रत्येक नागरिक सत्ता व शासन में कैसे भागीदारी कर सकते हैं? जनता कैसे समझ सकती है कि फैसले कैसे किए जा रहे हैं? साधारण लोग कैसे जानें कि कर अर्थात् टैक्स से आए पैसे को कैसे खर्च किया जा रहा है? या सार्वजनिक योजनाएं सही तरीके से चलाई जा रही हैं या नहीं या फैसले लेते समय सरकार ईमानदारी और निष्पक्षता से काम कर रही है या नहीं? सरकारी अधिकारियों का काम जनता की सेवा करना है, पर इन अधिकारियों का जनता के प्रति जबाबदेह कैसे बनाया जाए? क्योंकि देश का प्रत्येक नागरिक जानना चाहता है कि वहां के शासन-प्रशासन से जुड़ी हुई प्रत्येक सूचनाएं समय समय पर उपलब्ध होती रहें। सूचना ही लोकतंत्र का प्राण है। क्योंकि जब तक नागरिकों के पास शासन और प्रशासन से जुड़ी तथ्यपरक, नवीनतम एवं प्राथमिक सूचानाएं न हों, तब तक किसी ठोस एवं प्रभावी विचार-विमर्श की गुंजाइश नहीं बनती, सूचना तक नागरिकों की जितनी अधिक पहुंच होगी, उतनी ही अधिक सरकार एवं संवैधानिक संस्थाओं की लोगों के प्रति जवाबदेही बढ़ेगी। भागीदारी करने का एक तरीका यह है कि नागरिक उन संस्थाओं से सूचनाएं मांगने के लिए अपने सूचना के अधिकार का उपयोग करें जो सार्वजनिक धन से चल रही हैं या जो सार्वजनिक सेवाएं प्रदान कर रही हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम के लागू हो जाने के बाद भारत के सभी नागरिकों को सूचनाएं मांगने एवं जवाबदेह संस्था द्वारा उत्तर पाने का अधिकार है। यह अधिनियम इस बात को मान्यता देता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में सरकार के पास मौजूद सभी सूचनाएं अंततः जनता के लिए एकत्रित की गई सूचनाएं हैं। नागरिकों को सूचनाएं उपलब्ध कराना सरकार के कामकाज का एक सामान्य अंग भर है क्योंकि जनता को जानने का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी उनके पैसे से और उनके नाम पर क्या करते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध तक विश्व के अलग-अलग लोकतांत्रिक देशों की शासन व्यवस्थाओं में गोपनीयता एवं स्वाभाविक चीज बनी रही। विभिन्न दस्तावेजों में कैद सूचनओं को गोपनीय अथवा वर्गीकृत करार देकर नागरिकों की पहुच से सर्वथा दूर रखा जाता था, जहां तक भारत का सम्बन्ध है, भारत में भी यही स्थिति थी, ब्रिटिश सरकार ने अपनी औपनिवेशवाद नीति को बरकरार रखने के लिए भारतीयों के हित से जुड़ी हुई सूचनाएं सदैव गोपनीय रखीं औा ब्रिटिश सरकार ने एक शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923 (आफिशियल सीक्रेट्स एक्ट) बनाया, जिसके तहत सरकार एवं शासन कार्यप्रणालियों से जुड़ी हुई सूचनाएं गोपनीय रखी जाती थीं और जिसे जानने का किसी भी भारतीय को कोई हक नहीं था। वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम अब सरकार में खुलेपन की मांग करता है। पहले सरकार के पास मौजूद सूचनाओं को जनता को उपलब्ध कराना एक दुलर्भ अपवाद हुआ करता था जो आम तौर पर किसी लोक प्राधिकरण के अधिकारियों पर निर्भर करता था, लेकिन अब सूचना का अधिकार अधिनियम ने सभी नागरिकां को शासन और विकास के अपने जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर सवाल पूछने और जबाब की मांग करने का अधिकार दे दिया है। अधिनियम के द्वारा अपने भ्रष्ट तौर-तरीकों पर पर्दा डालने को ज्यादा मुश्किल बना देता है। सूचनाओं तक पहुंच के कारण खराब नीति-निर्माण प्रक्रिया को उजागर करने मदद मिलेगी और इससे भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में नवजीवन का संचार होगा।
सूचना का अधिकार अधिनियम का उचित कार्यान्वयन हो और यह सरकार को अधिक तत्पर और संवेदनशील बनाने के अपने प्रयोजन को सिद्ध करे, इसे सुनिश्चित करने का सबसे अधिक विश्वसनीय तरीका यही है कि हम सब इसका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करे और भी जिम्मेदारी के साथ और असरदार तरीके से।
सूचना के अधिकार के लिये संघर्ष :
स्वीडन विश्व का पहला देश बना, जिसने अपने देश के नागरिकों को एक अधिकार के रूप में सूचना का अधिकार (1776) में उपलब्ध कराया, लेकिन यह कानून स्वीडन में दो राजनितिक पार्टियों, द हैट्स और कैप्स के मध्य सत्ता के लिए हुए रोचक संघर्षों के परिणामस्वरूप बन सका। स्वीडन के बाद किसी देश लम्बे समय तक, सूचना का अधिकार कानून के क्षेत्र में खास पहल नहीं की, लेकिन 1945 के बाद विश्व के विभिन्न देशों में इस कानून को लागू करने के प्रति एक क्रान्ति सी आ गई। लगभग 180 वर्षो के लम्बे अन्तराल के बाद संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र (1948), अमेरीका (1966), नार्वे (1970), फ्रांस (1978), न्यूजीलैण्ड (1982), कनाडा (1982), आस्ट्रेलिया (1982), डेनमार्क (1985), दक्षिण कोरिया (1989), इटली (1990), थाईलैण्ड (1997), आयरलैण्ड (1998), ब्रिटेन (2000), यूरापियन संघ (2001), जिम्बांब्वे (2002), पाकिस्तान (2002), दक्षिण अफ्रिका (2002), जर्मनी (2005), जापान (2005), भारत (2005), चीन (2008) और एक के बाद एक देश इस कानून को अपनाने लगे, जो निरन्तर जारी दिखायी पड़ता है। इस परिप्रेक्ष्य में सर्वप्रथम इस कानून की महत्ता को समझते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 1948 ई. में घोषण की- ‘‘जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रखना, उसे प्राप्त करना तथा किसी व्यक्ति द्वारा जानकारी एवं विचारों का प्रसार करना मनुष्य का मौलिक अधिकार है।’’
सुचना के अधिकार के लिये समुचित विधायन के लिए संघर्ष दो मुख्य आधारां पर किया गया। प्रथम कठोर उपनिवेशी शासकीय गुप्त बात अधिनियम (1923) के लिए संशोधन की मांग और दूसरा सूचना के अधिकार पर प्रभावी विधि के लिए आन्दोलन है। शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923 पूर्व ब्रिटिश शासकीय गुप्त बात अधिनियम की प्रतिकृति है और जासूसी के सम्बन्ध में प्रावधान करती है। पिछले दशक के दौरान, नागरिकों समूह द्वारा केन्द्र शासकीय गप्त बात अधिनियम में केवल संशोधन की मांग उसके पूर्ण निरसन और व्यापक विधायन द्वारा उसके प्रतिस्थापन के लिए मांग में परिवर्तित हो गया था, जो कर्तव्य और अपराध की गोपनीयता को प्रकट करे। एम.के.एस.एस. जैसे शक्तिशाली संगठन ने सरकारी दस्तावेजों तक पहुंच और अधिनियम की प्रतियों को प्राप्त करने में स्पष्ट प्रशासनिक अनुदेश के बावजूद निरन्तर अत्यधिक कठिनाई अनुभव किया था कि ऐसे दस्तावेजों की प्रमाणित प्रतियां मांग पर नागरिकों को उपलब्ध करायी जानी चाहिए। इसने नागरिक समूहों को प्रतीत कराया था कि कितना महत्वपूर्ण यह है कि जन सूचना अधिकार कानून को विधि द्वारा प्रवर्तित किया जाना चाहिए। भारत में सूचना का अधिकार कानून को लेकर जमीनी स्तर पर यह आन्दोलन 1994 में राजस्थान के किसानों ने अरूणा राय एवं निखिल डे के नेतृत्व में ‘हमारा पैसा, हमारा हिसाब’ आन्दोलन के जरिए सूचना के अधिकार को देश भर में ख्याति दिलाने वाले अगुवा दस्ते को गौवर हासिल किया। पारदर्शिता का यह आन्दोलन गावों, पंचायतों में विकास कार्यो में भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा न्यूनतम मजदूरी के लिए संघर्षरत् ग्रामीणों एवं गरीब मजदूर किसानों की देन है। ‘‘राजस्थान से शूरू होकर यह जन आन्दोलन अन्य राज्यों में भी फैलने लगा। भारत के अनेक राज्यों द्वारा सूचना के अधिकार कानून के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए अपने अपने राज्यों में इसे लागू किया। राज्यों के बाद भारत में केन्द्रीय स्तर पर भी इस दिशा में पहल प्रारम्भ हुई। इसी आधार पर मार्च 2005 में सूचना का अधिकार विधेयक संसद में पेश किया गया। अंततः इसे 11 मई 2005 को लोक सभा एवं 12 मई को राज्य सभा ने भी इसे पारित कर दिया गया। 15 जून 2005 को राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति दी। इस तरह 12 अक्टूबर 2005 से सूचना का अधिकार पूरे देश में प्रभावी हो गया। जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है। अनुच्छेद 19 (1) के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को भारतीय संविधान द्वारा स्वतंत्र रूप से बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। भारतीय स्तर पर सूचना का अधिकारी अधिनियम आने से पहले ही भारत के 9 राज्य सरकारें राज्य सूचना का अधिकारी कानून पारित कर चुकिं थी, जिसमें तमिलनाडु 1997, गोवा 1997, कर्नाटक 2000, राजस्थान 2000, दिल्ली 2001, असम 2002, महाराष्ट्र 2000, मध्य प्रदेश 2003, जम्मू एवं कश्मीर 2004 आदि सम्मिलित हैं। (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, जहॉ विधान सभा द्वारा पहले ही सूचना का अधिकार कानून पारित एवं लागू किया जा चुका था। इसके अलावा, केन्द्र सरकार से जुड़े निकायों के सम्बन्ध में सूचना का अधिकार 2005 के तहत् सूचना मॉगने का अधिकार जम्मू कश्मीर के नागरिकों को भी प्राप्त है।
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के मुख्य उद्देश्य-
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 का उद्देश्य जैसा कि अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘‘प्रत्येक लोक प्राधिकरण के कार्यकरण में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के संवर्धन के लिए लोक प्राधिकारियों के नियंत्रणधीन सूचना तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों के सूचना अधिकार की व्यावहारिक शासन पद्धति स्थापित करने, एक केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोग का गठन करने और उनसे सम्बन्धित या उनसे आनुशांगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अधिनियम की व्यवस्था करना है, इस प्रकार इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य नागरिकां को सूचना अधिकार के माध्यम से व्यावहारिक शासन-पद्धति की स्थापना करना है।’’ यह अधिनियम जनता को विभिन्न प्रकार के मुद्दों पर जैसे नागरिक सुविधाओं का ह्रास, निर्वाचित प्रतिनिधियों की सम्पत्ति, लोक विधियों का उपयोग, सेवाओं की गुणवत्ता का स्तर तथा नागरिकों के आधारभूत मानवीय अधिकारों के बारे में सूचना प्राप्त करने हेतु सत्ता एवं शासन सक्षम बनाकर उसकी व्यवस्थाआें में खुलापन, जवाबदेही एवं पारदर्शिता लाना और प्रत्येक लोक प्राधिकारियों को अपने दायित्व के प्रति उत्तरदायी बनाता है। 
सूचना का अधिकार अधिनियम का प्रभाव-
प्रसिद्ध कवि एवं भारत रत्न रबीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखित कुछ पंक्तियाँ ‘‘जलते हुए चिराग ने ढलते हुए सूरज से कहा, दादा तुम जा रहे हो, तो जाओ।’’ लेकिन तुम्हारे जाने के बाद मैं अन्धेरे से लड़ने का निरन्तर प्रयास करता रहूंगा। टैगोर जी की इन पंक्तियों को सूचना का अधिकार कानून सिद्ध करके दिखा रहा है। यह उन चंद कानूनों में से है लोकतांत्रिक मान्यताओं के तहत जनता को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह सरकारी कार्यों में अपना हस्तक्षेप दे सके उसके यथास्थिति को जान सके, सरकारी या फिर सार्वजनिक योजनाओं से जुड़े हर विभाग एवं विभागीय कार्यालयों से कार्य की प्रगति का विवरण प्राप्त कर सके, साथ ही साथ जनता का पैसा कहा किस मद में किस तरीके से और कितना खर्च किया जा रहा है उसके विषय में भारत के प्रत्येक नागरिक को जानकारी प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त कराता है। इस कानून ने बहुत कम समय में देश एवं प्रदेश के अन्दर हर वर्ग के लोगों का विश्वास जीता है, जिसका प्रयोग लोग व्यवस्थाओं में पारदर्शिता लाने व भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक ऐसे हथियार के रूप में कर रहे हैं जो सत्ता एवं शासन व्यवस्थाओं में दशकों से मौजूद गोपन संस्कृति को भेदकर, इस कानून का ब्रा में कर रहे हैं जो सत्ता एवं शासन व्यवस्थाओं में दशकों से मौजूद गोपन संस्कृति को भेदकर, इस कानून का ब्रह्मास्त्र पूरे तंत्र की परतें उधेड़ रहा है, जिससे देश की विधायिका एवं अधिकारी वर्ग इस कानून के कारण बेहद असहज महसूस कर रहा है, लेकिन इस कानून से सत्ता एवं शासन में पारदर्शिता, जवाबदेही जैसी संस्कृति का विकास हुआ, अब कोई भी व्यक्ति किसी भी अधिकारी या कर्मचारी से बेधड़क पूछ सकता है कि मेरा काम क्यों नहीं हुआ? कब होगा? इसके लिए कौन अधिकारी या कर्मचारी जिम्मेदार है? जिसने मेरे काम को करने में बिलम्ब किया है, उस अधिकारी या कर्मचारी पर क्या कार्यवाही हुई है? इन सब सवालों का जवाब जानने का अधिकार, अब प्रत्येक नागरिक को सूचना का अधिकार कानून बनने के बाद एक अधिकार के रूप में मिला है। अब जन प्रतिनिधियों एवं अधिकारियों को अपने उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही का बोध हो रहा है। यह सूचना का अधिकार कानून की उपलब्धि है कि बेलगाम नौकरशाही और लापरवाह विधायिका दोनों पर यह कानून अंकुश लगा पा रहा है। अब कोई यह नहीं कह सकता है कि तुम पुछने वाले होते कौन हो? यह इसी कानून की ताकत है कि भारतीय संविधान के प्रस्तावना के प्रथम शब्द ‘हम भारत के लोग’ की वास्तविक व्याख्या और अधिकारिता को आजादी के छः दशकों बाद इसी से व्यावहारिक स्वरूप मिल पाया है। देश का प्रत्येक नागरिक इस कानून का प्रयोग एक अधिकार के रूप में सार्वजनिक क्षेत्रों एवं अपने व्यक्तिगत हित से जुड़ी हुई अनेक सूचनाओं के बारे में कर रहा है। इस कानून के सार्थक क्रियान्वयन को लेकर देश के विभिन्न भागों में कई संस्थाएं एवं सक्रिय कार्यकर्ता कार्य कर रहे हैं जिसमें कामनवेल्थ ह्यूमर राइट्स इनिशिएटिव तथा परिवर्तन आदि संस्थाए, राजधानी दिल्ली सहित पूरे देश के विभिन्न भागों में लोगों को इस कानून के प्रयोग के प्रति जागरूक कर रही हैं। कुछ राज्यों के लोगों ने आर.टी.आई क्लबों का गठन भी कर रखा है जिससे समाज का जरूरतमंद व्यक्ति इस कानून का प्रयोग एक अधिकार के रूप में कर सके।  
जन सूचना एवं जन जागरूकता का असर-
  1. सूचना का अधिकार कानून बनने के बाद प्रत्येक विभाग के अधिकारियों तथा कर्मचारियों द्वारा सरकारी    रिकॉर्ड के रख-रखाव में पारदर्शिता बढ़ी है।
  2. केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा वर्षों से चलायी जा रही, जनकल्याणकारी योजनओं मनरेगा, मिड-डे-मिल, स्वास्थ्य एवं निर्माण कार्यों आदि क्षेत्रों में कई वर्षों से हो रहा अनियमितताओं का पर्दाफास हुआ है, जिसमें भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए हैं।
  3. इस कानून ने शासन-प्रशासन तंत्र को सुशासन की ओर बढ़ने के लिए प्ररित किया है।
  4. आज सूचना का अधिकार कानून केवल भ्रष्टाचार से लड़ने में ही सहयोगी साबित नहीं हो रहा है, बल्कि वह सच्चाई को सामने लाने के लिए भी सबसे प्रभावी उपकरण बन रहा है।
  5. इस कानून के बनने के बाद ईमानदार अधिकारी खुश हैं, क्योंकि राजनीतिक दबाब के कारण पहले वे कई बार अपनी सही राय नहीं रख पाते थे, अब उनको मौका मिला है कि वे अपनी राय ईमानदारी से रख सकते हैं।
  6. यह कानून जवाबदेही से भागते पदाधिकारियों की जिम्मेदारी पता करने से लेकर, जनहित का व्यापक नुकसान करने वालों की पहचान में मददमार रहा है, जनता में अपनी जरूरत के हिसाब से इस कानून का प्रयोग किया।
  7. इस कानून के बन जाने के बाद कुछ अपवाओं को छोड़कर शासन-प्रशासन के कार्यों में जवाबदेही एवं पारदर्शिता की संस्कति के विकास का मार्ग प्रशस्त किया है।
  8. इस कानून के बन जाने के बाद लोगां के रोजमार्ग के छोटे-छोटे काम जैसे राशन कार्ड, बिजली का कनेक्शन, ड्राइविंग लाइसेंस, जॉब कार्ड आदि कार्य बड़ी आसानी से हो रहे हैं।
  9. राजनीति के अपराधीकरण व अपराधों के राजनीतिकरण को रोकने व स्वच्छ राजनीति के नए युग की शुरूआत करने में यह कानून महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है।


संदर्भ ग्रंथ-सूची :

  1. Right to Information Act 2005.
  2. Agrawal, H.O. (2012), Human Rights, Central Law Publications, Allahabad, Pp-261-266.
  3. Babel, Basanti Lal (2013), Constitutional Law: New Challenges, Central Law Publications, Allahabad, Pp-91-100
  4. मुण्डे, श्रीराम, ;2007द्धए   सूचना अधिकार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  5. त्रिपाठी, देवेश नारायण, ‘सूचना अधिकार के दायरे में राजनीतिक दल’, प्रतियोगिता दर्पण, अक्टूबर, 2013।
  6. सिंह विक्रम, ‘सूचना का अधिकार अधिनियम 2005’, प्रतियोगिता दर्पण, नवम्बर, 2013। 


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