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समाज कल्याण एवं प्रबन्धन में सरकारी प्रयासों का वस्तुपरक अध्ययन (Roll of government efforts in social welfare and management)

समाज कल्याण एवं प्रबन्धन में सरकारी प्रयासों का वस्तुपरक अध्ययन

- कुशकुल दीप 

प्रस्तावना
सामाजिक कल्याण सामान्य रूप से व्यक्तियों के जीवन को उन्नत करने एवं उनके कुशल क्षेम तथा विशिष्ट रूप में समाज के निराश्रित, वंचित, अलाभान्वित एवं विशेषाधिकार रहित वर्गों के कष्टों को दूर करने एवं उनकी दशा को सुधारने की ओर लक्षित है। समाज कल्याण के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सरकार सामाजिक नीतियों का निर्माण करती है तथा इनके अनुसार सामाजिक अधिनियम बनाती है, विभिन्न परियोजनाओं कार्यक्रमों एवं स्कीमों को तैयार करती है, वित्तीय प्रावधान करती है एवं मंत्रालयों, विभागों, निगमों, अभिकरणों के रूप में प्रशासकीय संयंत्र एवं संगठनात्मक संरचना की व्यवस्था करती है तथा विभिन्न कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में अशासकीय संगठनों का समर्थन एवं सहयोग लेती है। सामाजिक सेवाओं, समाजकार्य, सामाजिक विधान आदि के क्षेत्रों में विभिन्न क्रियाकलापों का प्रबन्धन, समाज कल्याण प्रबन्ध की श्रेणी के अन्तर्गत आता है।
समाज कल्याण प्रबन्ध : अर्थ एवं अवधारणा
समाज कल्याण प्रबन्धन की अवधारणा की प्रमुखतया तब मिलने लगी जब प्रबन्धन क्रान्ति ने सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण व लाभकारी परिवर्तन लाना शुरु किया। प्रबन्धन एक व्यापक प्रत्यय है जिसमें नियोजन से लेकर प्रशासन तक की सारी चीजें सन्निहित हैं। समाज कल्याण प्रबन्धन अपने सिद्धान्त एवं ज्ञान का पुंज लिए एक अतिरिक्त समाज विज्ञान है। यह किसी भी सामाजिक विज्ञान के निष्कर्षों को जो इसके क्षेत्र से प्रासंगिक है, जो सामाजिक समस्याओं के समाधान है; सामाजिक नीति के क्रियान्वयन एवं सामाजिक कल्याण की उन्नति को सम्मिलित करता है का प्रयोग करता है; परन्तु इसकी अलग विशेषता यह है कि यह सामाजिक विज्ञानों के किसी भी निष्कर्ष से लाभ उठाता है एवं जिनका प्रयोग उन कार्यों के निष्पादन में जो विशिष्ट रूप से इसकी चिन्ता है, उपकरणों के रूप में करता है।
सामाजिक समस्यायें जो इस विषय का केन्द्रिक विषय है, निरन्तर परिवर्तनशील है तथा विभिन्न समाजों में इनकी अवधारणाएं एवं इनका स्वरूप विभिन्न है, अतः इनके प्रति इन समाजों की प्रतिक्रिया एवं प्रबोधन भी विभिन्न रहा है, इस कारण यह विषय स्थैतिक नहीं हो सकता, इसे गतिशील होना होगा। परिणामतः इसकी परिभाषा देना सरल नहीं है। टी.ए. चतुर्वेदी ने इसकी संक्षिप्तम परिभाषा केवल दो शब्दों में दी है, जब उन्होंने इसे ‘समस्या केन्द्रित विषय’ एवं ‘सामाजिक समस्याओं के समाधान हेतु एक उपागम’ बतलाया।
संकुचित रूप में समाज कल्याण प्रबन्ध समाज सेवाओं के नियोजन, विकास, संरचना एवं व्यवहारों का अध्ययन है जिसमें सामाजिक नीति को समाज सेवा में अकारित करने की प्रत्येक गतिविधि सम्मिलित है।
प्रो. टिटमस के अनुसार, ‘समाज कल्याण प्रबन्ध को उन समाज सेवाओं, सेवी एवं विधिक दोनों के विकास, समाज क्रिया में निहित नैतिक मूल्यों, सेवाओं की भूमिका तथा उनके कार्य, उनके आर्थिक पक्षों तथा सामाजि प्रक्रिया में कुछेक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में उनके अंशदान से है- यह सभी महत्वपूर्ण एवं समाज कल्याण प्रबन्ध में इनका अध्ययन किया जाना चाहिए।’
इस प्रकार समाज कल्याण प्रबन्धन की प्रक्रिया उन क्रियाकलापों को सुगम बनाने अथवा जीवन शक्ति प्रदान करने की प्रक्रिया है जो किसी सामाजिक अभिकरण द्वारा प्रत्यक्ष सेवा प्रदान करने हेतु आवश्यक एवं सहायक है।
समाज कल्याण प्रबन्धन की विशेषताएँ
समाज कल्याण प्रबन्ध से सम्बन्धित उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि इसका अध्ययन क्षेत्र अति व्यापक है तथा इसकी विशेषताओं से सम्बन्धित क्षेत्रों की प्रतिदिन गतिशील समाज में उभरती नयी सामाजिक समस्याओं यथा जनसंख्या विस्फोट, आपदा, गैस रिसाव दुर्घटनाएं इत्यादि के फलस्वरूप बढ़ती जा रही हैं। इसकी प्रमुख विशेषताओं को अधोलिखित बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता हैः
1. समाज कल्याण प्रबन्धन की प्रथम विशेषता यह है कि इसमें समाज में वांछितः परिवर्तन/प्रभाव लाने हेतु सर्वप्रथम नियोजन किया जाता है। नियोजन का अर्थ है वे सभी कार्य जो सामाजिक कार्यकर्ता समस्या क्षेत्र में जाने से पूर्व, समाज कल्याण उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिए करता है। इस सोपान में सम्पूर्ण प्रणाली का विश्लेषण किया जाता है, तत्पश्चात् कल्याण कार्य का विश्लेषण किया जाता है। समाज की समस्या का ठीक तरीके से पूर्वानुमान लगाने के साथ-साथ उनकी आवश्यकताओं का भी पता लगाया जाता है और फिर कल्याण उद्देश्यों के संदर्भ में उन्हें संगठित किया जाता है।
2. समाज कल्याण प्रबन्ध की द्वितीय विशेषता यह है कि इसमें संगठन किया जाता है। एक प्रभावशाली प्रबन्धन समाज कल्याण के स्रोतों तथा साधनों की व्यवस्था अपने निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रभावी ढंग से करता है। इसके अन्तर्गत समुचित कल्याण क्रियाओं का चयन कर उचित विधियों को चुना जाता है जिसके द्वारा समाज कल्याण की क्रिया क्रियान्वित की जाती है।
3. इसकी तीसरी विशेषता यह है कि इस प्रक्रिया के अन्तर्गत कल्याण क्रियाओं के अभिप्रेरण की भी व्यवस्था की जाती है जिससे समाज कल्याण गतिविधियों में वांछित परिवर्तन व शीघ्रता लायी जा सके।
4. इसकी चौथी विशेषता इसके अन्तर्नुशासनीय प्रकृति का होना है। इसे अपने क्षेत्र में अन्य सामाजिक विज्ञानों के विशेषतया दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान एवं अर्थशास्त्र के ज्ञान को भी सम्मिलित करना पड़ता है ताकि समाज एवं मुनष्य को उनकी समग्रता में समझकर तथा इन विज्ञानों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान का प्रयोग करके व्यक्तियों, परिवारों एवं समूहों की समस्याओं के समाधान में सहायता मिल सके।
समाज कल्याण प्रबन्धन के उद्देश्य
समाज कल्याण प्रबन्धन के उद्देश्य- सामाजिक रूप से हीन वर्गों- अनुसूचित जातियाँ अनुसूचित कबीलों, अनाथों, विधवाओं, अविवाहित माताओं, नैतिक भय के अधीन महिलाओं, वृद्धों एवं अशक्तों महिलाओं एवं बच्चों, सामाजिक तौर पर कुमंजित, भिखारियों, वेश्याओं, अपराधियों, शारीरिक एवं मानसिक तौर पर अशक्त, बीमार, मंदबुद्धि अथवा मानसिक रोगी तथा आर्थिक रूप से हीन यथा बेरोजगार एवं निराश्रित व्यक्तियों के लिए समाज कल्याण सेवाओं की व्यवस्था; अतः समाज कल्याण प्रबन्धन का उद्देश्य उनकी दशा को उन्नत करना है।
समाज कल्याण के सरकारी प्रयास
समाज कल्याण के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए केन्द्रीय, प्रान्तीय और स्थानीय सरकारें (देहाती और शहरी) अपने-अपने क्षेत्रों में उचित संघटनात्मक और प्रशासनिक मशीनरी प्रदान कर रही है। साथ ही वे पिछले अनुभवों के प्रकाश में अपनी संरचनाओं, पद्धतियों, प्रक्रियाओं में उचित परिवर्तन कर रही है। जिससे वे अपने लक्ष्यों की ओर अधिक सक्षमता और प्रभावशीलता से बढ़ सके। हमारे संघीय ढांचे की त्रिकोणी समाज कल्याण की प्रशासनिक संरचनाएँ इस तरह है :
केन्द्रीय स्तर पर कल्याण मंत्रालय
गत वर्षों में समाज कल्याण एक स्वतंत्र विभाग के रूप में या किसी संयुक्त विभाग के रूप में काम करता रहा है। कल्याण संस्था के सृजन की दृष्टि से किये गये आरम्भिक प्रयासों में जून 1964 में समाज प्रतिरक्षा के विभाग की स्थापना की गई ताकि शिक्षा, गृहकार्यों, स्वास्थ्य, श्रम, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालयों के समाज कल्याण से सम्बन्धित विषयों की देखरेख की जा सके। जनवरी 1966 में समाज प्रतिरक्षा विभाग को समाज कल्याण विभाग का नाम दिया गया और अगस्त 1979 में इसे स्वतंत्र मंत्रालय का दर्जा दिया गया। इसका नाम शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय रखा गया। सन् 1984 में इस मंत्रालय का नाम समाज और महिला कल्याण रखा गया। 25 सितम्बर 1985 से कल्याण मंत्रालय बना जिसके साथ अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों से सम्बन्धित विषयों को जोड़ दिया गया। समाज कल्याण के सरकारी प्रयासों को इनके विशेषीकृत खण्डों का आधार पर ज्यादा स्पष्ट से समझा जा सकता है जिन्हें अधोलिखित बिन्दुओं पर स्पष्ट किया गया हैः
1. समाज प्रतिरक्षा सेवाएँ 
हर एक समाज में कोई न कोई बुराई विद्यमान होती है। भारतीय समाज में शिशु अपराध, भिक्षा मांगना, महिलाओं और लड़कियों का शरीर व्यापार, नशाखोरी आदि बुराईयाँ है। ये बुराईयां अनेक प्रकार के अपराधों को पैदा करने में उत्तरदायी हैं और इसीलिए व्यक्ति और समाज के कल्याण के लिए इन पर नियंत्रण पाना और इनका उन्मूलन करना आवश्यक है। अपराध से समाज को बचाना ही समाज प्रतिरक्षा है। दूसरे शब्दों में समाज प्रतिरक्षा से यह घोषित होता है कि अपराध को रोकना और अपराधी का इलाज करना। समाज प्रतिरक्षा सेवाओं का प्रशासन प्रान्तीय और केन्द्रीय सरकारों के दायरे में आता है। समाज प्रतिरक्षा के क्षेत्र में केन्द्रीय सरकार की मुख्य भूमिका यह रहती है कि वह प्रान्तीय सरकारों की कार्य प्रणालियों में सामंजस्य स्थापित करेमं। इससे सम्बन्धित प्रमुख सुधार इस प्रकार है।
शिशु अपराध : गत वर्षों में शिशु अपराधियों की संख्या इन कारणों से बढ़ी है- निर्धनता और पारिवारिक जीवन का विश्रृंखलन सामाजिक नियंत्रण में गिरावट, योग्य अवसरों का अभाव और फलस्वरूप होने वाली निराशा, परस्पर विरोधी विचारों और मूल्यों का होना और सहज धन प्राप्ति। भारतीय जेल समिति के अनेक अनुमोदनों पर अनेक प्रान्तीय सरकारों ने 1920 से शिशु अधिनियमों को बनाया ताकि अपराधी शिशुओं के कारावास, अभियोग और सुधारात्मक उपचार के लिए उन्हें विशिष्ट सुविधाएं प्रदान की जा सके। 1960 ई0 में भारत सरकार ने शिशु एक्ट बनाया था ताकि उपराज्यों में उनका क्रियान्वयन किया जा सके। इसमें यह प्रावधान था कि शिशु न्यायालयों में उन बच्चों की सुनवाई हो जिन्हें अपराध कानून का उल्लंघन करने के कारण पुलिस के द्वारा पकड़ा गया था। भारत सरकार ने 1986 में शिशु-न्याय एक्ट बनाया था ताकि पिछले सारे प्रान्तीय शिशु एक्टों को बदलकर एक समान पद्धति का प्रशासन और न्याय प्रदान किया जा सके। इस एक्ट के अनुसार उपेक्षित बच्चों की देखाभाल, उपचार, विकास और पुनर्वास करना था। जम्मू कश्मीर को छोड़कर शेष सारे भारत में यह एक एक्ट 2 अक्टूबर, 1987 से लागू है। इस एक्ट के तहत शिशु अपराधियों (16 वर्ष से कम आयु के लड़कों और 18 वर्ष से कम आयु वाली लड़कियों) को आवास, भोजन व्यवस्था और शिक्षा की सुविधाएं, व्यावसायिक प्रशिक्षण और पुनर्वास दिया जा रहा है।
कैदी कल्याण : कैदखाने को अब सजा के स्थान न समझ कर सुधार गृह के रूप में देखा जाने लगा है। भारतीय जेल समिति (1919-20) ने घोषणा की थी कि कारावास का लक्ष्य दण्डितों को सुधार और पुनर्वास है। उस समिति ने इस बात पर जोर दिया कि जेलों में कल्याणकारी पग उठाये जाये। इसी प्रकार 1957 में गृह मंत्रालय ने एक अखिल भारतीय जेल मैन्युअल समिति के सुझाव को स्वीकार किया।
इसके तहत जेलों में सुधारात्मक प्रक्रिया के आवश्यक अंग के रूप में जेलों में बर्ताव और समाज में रहन-सहन के मध्य एक कड़ी प्रदान कर उनका कल्याण किया जा रहा है।
स्त्रियों और लड़कियों के शरीर व्यापार को दबाने का एक्ट यह एक्ट 1956 में संसद के द्वारा पारित हुआ और इस विषय में सभी प्रान्तीय एक्टों को हटाकर 1958 में सारे देश में लागू किया गया। इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य जीने के एक संगठित माध्यम के रूप में वेश्यावृत्ति की व्यापारिकता को दबाना। इस एक्ट में वेश्यावृत्ति के अड्डे चलाने वाले के लिए, वेश्यावृत्ति से रोजी कमाने वाले के लिए, स्त्रियों और लड़कियों को उन स्थानों पर ले जाने के लिए जहाँ वेश्यालय है। सार्वजनिक स्थानों पर वेश्यालय चलाने वाले के लिए और वेश्यावृत्ति के लिए किसी को उकसाने या फुसलाने वाले के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान है। इस एक्ट के प्रावधानों को लागू करने के लिए विशेष पुलिस अधिकारियों और गैर अधिकारी सलाहकार समितियों की स्थापना का भी विधान है।
भिक्षावृत्ति को दूर करना : भिक्षावृत्ति सारे दश्े में इस हद तक व्यापक है कि इस बुराई को दूर करने के लिए किये गये सभी प्रयास विफल हुए है। सभी सम्प्रदायों के धार्मिक स्थलों, सार्वजनिक स्थानों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों, दुकानों, सड़कों, गलियों और पर्यटन केन्द्रों पर भिखारियों की विद्यमानता एक शर्मनाक दृश्य उपस्थित है। जो मूल नागरिकों और विदेशी पर्यटकों को भी परेशान करती है। भिक्षावृत्ति केवल हमारे सामाजिक-आर्थिक अभाव का ही परिणाम नहीं है।
2. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
सभी सरकारों की मान्यता है कि स्वास्थ्य में निवेश मनुष्य एवं जीवन की गुणवत्ता को उन्नत करने में निवेश है, अतएव मानव संसाधन विकास की रणनीति का एक भाग है। स्वास्थ्य केवल मात्र रोगों अथवा अशक्तता की अनुपस्थिति नहीं है, यह एक शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक कुशल क्षेम है जो मौलिक मूल अधिकार है तथा स्वास्थ्य की संभावित सीमा तक प्राप्ति एक सामाजिक उद्देश्य है। तद्नुसार भारतीय संविधान में समानता, न्याय स्वतंत्रता एवं व्यक्ति के मान पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना की गई है। यह निर्धनता, अज्ञानता एवं कुस्वास्थ्य की समाप्ति को लक्ष्य निर्धारित करता है।
नियोजन प्रक्रिया के आरम्भ से इस देश में विभिन्न पंचवर्षीय योजना एक ऐसी संरचना प्रदान करने की व्यवस्था कर रही है। जिसमें राज्य अपनी स्वास्थ्य सेवाओं की आधारमूलक संरचना, चिकित्सकीय शिक्षा की सुविधाओं, अनुसंधान आदि को विकसित कर सकें। इस शताब्दी के अन्त तक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण क्षेत्र में प्राप्त करने के लिए जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है, वह है ‘सबके लिए स्वास्थ्य एवं जनसंख्या स्थिरीकरण’ इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं एवं राष्ट्रीय प्रोग्रामों में वृद्धि की गई है। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा लोगों को उनके घरों के निकटस्थ एवं उनकी पहुँच के अन्दर उपलब्ध करायी जाती है। पांच हजार की जनसंख्या के लिए एक उपकेन्द्र होता है, परन्तु पहाड़ी, जनजातीय एवं पिछड़े क्षेत्रों में प्रत्येक 3000 जनसंख्या के लिए एक उपकेन्द्र होता है। इस समय 112103 उपकेन्द्र, 16954 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, 1469 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र देश में कार्य कर रहे है। उपकेन्द्रों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की यह श्रृंखला ग्रामीण क्षेत्रों जिसमें पहाड़ी, जनजातीय एवं पिछड़े क्षेत्र सम्मिलित हैं में अवरोधात्मक, निदानीय एवं सुधारात्मक सेवाओं ‘पैकेज’ प्रदान करती है। कुष्ठ, एड्य, गलगण्ड इत्यादि रोगों पर नियंत्रण पाने के लिए विविध प्रयास किये जा रहे हैं जिसमें गरीबों, वंचितों व बीमारों की स्वास्थ्य स्तर में सुधार हो रहा है।
राष्ट्रीय रोग निरोधन प्रौद्योगिकी मिशन की स्थापना बच्चों में मृत्यु दर एवं रुग्णता दर को कम करने के लिए टीका द्रव्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने हेतु की गई हैं सार्वभौमिक रोग निरोधन प्रोग्राम बाल जीविता दर को बढ़ाने हेतु 307 जिलों में पूर्व से ही चल रहा है। इस प्रोग्राम के अधीन एक वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों को डी.पी.टी., पोलियो, खसरा एवं बी.सी.जी के टीके लगाकर रोग निरोधक बना देना है। सभी गर्भवती माताओं को भी टैटनेस टॉक्साइड के दो टीके लगाकर बच्चों की जन्मजात टैटनस से रक्षा करना है। एक अन्य प्रोग्राम जो बच्चों के जीवन से सम्बन्धित है, मौखिक पुनः जलपूर्ति चिकित्सा प्रणाली है जिससे बच्चों को अतिसार के कारण जलविहीनता से उपजित मृत्यु से रक्षा की जाती है।
खाद्य पदार्थों में मिलावट की रोकथाम के लिए कानून 1954, जो 1 जून 1955 से क्रियान्वित है जिसका उद्देश्य इस बात को सुनिश्चित करना है कि उपभोक्ताओं को एवं स्वास्थ्यवर्धक खाद्य वस्तुएं प्राप्त हों। इसका लक्ष्य धोखाधड़ी का रोकना तथा न्यायमुक्त व्यापार व्यवहारों को प्रोत्साहित करना भी है।
3. महिला कल्याण
महिलाएं हमारे देश की जनसंख्या का लगभग आधा भाग हैं और विकास कार्यों में उनकी भागेदारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है, कोई भी योजना, चाहे वह आर्थिक विकास के क्षेत्र में चाहे समाज विकास के क्षेत्र में, तभी सफल हो सकती है जब इन कार्यक्रमों में महिलाएं रचनात्मक भूमिका अदा करें। समाज में सामाजिक असमानताएं होने पर भी उनके सामाजिक स्तर में बहुत सुधार हुआ है और आज महिलाएं उच्च पदों पर आसीन हैं। जीवन के लिए उनका जन्मजात उत्साह और उल्लास कई घरों को प्रकाशित कर रहा है। समाज के राज्य को दिशा देने और बदलने में स्त्रियों की भरपूर भूमिका है।
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में वृद्धि, जैसे देश में दहेज से मृत्यु, दुल्हन जाने और महिलाओं को सताने के मामलों में लगातार वृद्धि हुई है। बलात्कार, दुर्व्यवहार अनैतिक आचरण, अपहरण और अवैध रूप से रखना- ये सब ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बढ़ रहे है। इसके कल्याण के संदर्भ में सरकारी प्रयासों में दहेज निषेध अधिनियम 1961 अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि विधेयक बना देने बद्धमूल सामाजिक समस्याओं का हल नहीं हो सकता। फिर भी भीषण परिणामों वाली सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध वैधानिक नियंत्रण प्रदान करने के लिए अतिरिक्त शिक्षात्मक प्रभाव डालने के लिए वैधानिकता आवश्यक है।
सती प्रथा अधिनियम 1829 से लेकर वर्तमान तक महिलाओं के कल्याण सम्बन्धित प्रयासों में समान श्रम भत्ता अधिनियम 1976 भी महत्वपूर्ण है जिससे पुरुष और महिला श्रमिकों को एक समान श्रम भत्ता मिले और रोजगार तथा दूसरे सम्बन्धित विषयों में लिंग के आधार पर पुरुषां और महिलाओं में भेदभाव को रोका जाय। इन्दिरा महिला योजना जो नवम्बर 18, 1989 को स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के जन्म दिन पर महिलाओं के लिए एक विशेष योजना- इन्दिरा महिला योजना घोषित की गई ताकि महिलाओं में उनके समान अधिकारों और सुविधाओं की जागृति पैदा की जाय कि वे समाज में तथा राष्ट्र के निर्माण में समानता का दर्जा रखती हैं। इस प्रकार ये वैधानिक वर्ग महिला के प्रति सामाजिक असमानताओं और सामाजिक कलंकों को दूर करने में चिर सहायक हुए हैं।
4. बाल कल्याण
वर्ड्स बर्थ का कथन है कि बालक मनुष्य का पिता है। उसके कथन का तात्पर्य था कि प्रौढ़ की उत्पादिकता उन अवसरों पर निर्भर करती है जो उसे बालक के रूप में विकसित एवं बड़े होने के लिए प्राप्त हुए। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि किसी राष्ट्र की गुणवत्ता इसके द्वारा बालकों पर दिये गये ध्यान पर आश्रित है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में अंकित है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी कारखाने अथवा किसी अन्य खतरनाक रोजगार में नहीं लगाया जायेगा। राज्य नीति निर्देशक सिद्धान्तों की धारा 39 में इस बात को सुनिश्चित किया गया है कि आर्थिक आवश्यकता से बाध्य होकर बच्चों को उनकी आयु एवं शक्ति के अयोग्य किसी व्यवसाय में कार्य करना पड़े। अनुच्छेद 45 के अन्तर्गत राज्यों वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए कहा गया है। समेकित बाल विकास योजना जो 2 अक्टूबर 1975 को आरम्भ किया गया। इसके उद्देश्य बच्चों के व्यापक कल्याण जैसे- 0-6 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के पोषाहार तथा स्वास्थ्य में सुधार लाना, बच्चे के उचित मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास के लिए आधार तैयार करना; बाल मृत्यु दर, रुग्णता, कुपोषण एवं स्कूल से हट जाने की घटनाओं को कम करना, बाल विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न विभागों के बीच नीति और कार्यान्वयन का प्रभावी समन्वय स्थापित करना और बच्चे की सामान्य स्वास्थ्य और पोषाहार सम्बन्धी जरुरतों की देखभाल के लिए उचित पोषाहार और स्वास्थ्य शिक्षा के माध्यम से माताओं की क्षमता बढ़ाना। इसके अतिरिक्त भी बच्चों के कल्याण हेतु बहुआयामी प्रयास सरकारों द्वारा उन्हें पुरस्कार, दिवस व अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के माध्यम से किया जाता रहा है।
5. युवा कल्याण
भारत में युवकों ने विदेशी सत्ता में मातृभूमि को स्वतंत्र कराने में प्रशंसनीय भूमिका अदा की है। उन्होंने महात्मा गांधी, नेहरु एवं सुभाष चन्द्र बोस की प्रेरणा के अधीन स्वतंत्रता संग्राम में अपने जीवन की आहूत तक दी। भारत सरकार आरम्भ से ही युवा वर्ग के प्रति अपने दायित्व को स्वीकारते हुए उनके कल्याण हेतु आवश्यक सुविधाएं जुटाने का प्रयास  कर रही है। इस कार्य के लिए राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में मानव संसाधन मंत्रालय में एक अलग विभाग युवा मामलों एवं खेल के नाम से खोला गया जिसका कार्य अनन्य रूप से युवा हितों की देखभाल करना तथा उनके विकास एवं कल्याण हेतु आवश्यक उपाय करना था। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में ‘शारीरिक शिक्षा, खेलकूद जिसमें खेल के मैदानों का निर्माण, शारीरिक शिक्षा के प्रध्यापकों एवं प्रशिक्षकों, खेल उपकरण की पूर्ति सहित राष्ट्रव्यापी आधारिक संरचना की व्यवस्था करने पर बल दि गया है। तदर्थ, शारीरिक शिक्षा के प्राध्यापक-प्रशिक्षण प्रोग्रामों तथा शारीरिक शिक्षा एवं खेल कार्यक्रमों में विद्यार्थियों की जनसहभागिता पर विशेष ध्यान दिया गया है। सरकार ने 1986 में राष्ट्रीय खेल नीति को भी अंगीकृत किया जिसके दो उद्देश्य थे, प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय खेलों में श्रेष्ठ निष्पादन तथा दूसरा अर्थपूर्ण खेल गतिविधियों का प्रसार। ये सभी सरकारी प्रयास युवा कल्याण एवं विकास के लिए प्रशंसनीय है।
6. वृद्ध कल्याण
किसी समय वृद्धों का भारतीय समाज की परम्पराओं एवं इसके सामाजिक मूल्यों के कारण बड़ा आदर होता था। परन्तु अब स्थिति में परिवर्तन आ गया है। युवकों का दृष्टिकोण व्यक्तिवादी बनता जा रहा है तथा वृद्धों के प्रति उनका आदर भाव कम होता जा रहा है। सरकार वृद्धों के प्रति अपने दायित्वों के प्रति सचेत है। कल्याण मंत्रालय ने 1987 में वृद्धों की देखभाल पर गोलमेज विचार-विमर्श आयोजित किया था। 1990 का वर्ष हमारे देश में बड़ी शान-शौकत के साथ ‘वृद्ध वर्ष’ के रूप में मनाया गया था जिसने हमारे वरिष्ठ नागरिकों के मस्तिष्क में प्रत्याशित आशाओं को जन्म दिया। संविधान के अनुच्छेद 41 के अधीन राज्य का मौलिक कर्तव्य है कि वह वृद्धों का सार्वजनिक सहायता एवं अपने कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति पर पेंशन लाभ प्रदान करे।
7. अनुसूचित जाति एवं जनजातियों का कल्याण
महान दार्शनिक एवं विद्वान भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, मनु ने पुरोहित, शिक्षक, योद्धा, व्यापारी एवं श्रमिक को चतुर्वर्ण विचारणा को समाज के सभी वर्गों कको समान पद, समान मान एवं समान मूल्य देने के विचार से प्रतिपादित किया था परन्तु परिवर्तन की आंधी एवं इतिहास की लहरों ने कर्म पर आधारित चतुर्वर्ण की विचारणा की वंशानुगत आधारित जजमानी प्रणाली में परिवर्तित कर दिया जो अन्ततः देश के लिए घोर अभिशाप सिद्ध हुआ। भारत सरकार अधिनियम 1935 में सर्वप्रथम अनुसूचित जाति का शब्द प्रयोग हुआ। यह अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम, भारतीय संविधान में किया गया है, स्वतंत्रतापूर्व ‘आदिम जनजाति’, ‘पिछड़ी जाति’ आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता था।
संविधान में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य कमजोर वर्गों के लिए विशेष तौर पर अथवा नागरिक रूप में उनके अधिकारों को मान्यता देकर उसके शैक्षिक एवं आर्थिक हितों का विकास करने एवं उनकी सामाजिक अयोग्यताओं को दूर करने हेतु सुरक्षाएं प्रदान की गई है। मुख्य सुरक्षाएं अस्पृश्यता का उन्मूलन एवं किसी भी रूप में इसके अभ्यास पर प्रतिबन्ध (धारा-17) जिससे इनके सामाजिक-मनोवैज्ञानिक विकास का कल्याण सम्भव हुआ है। उनके शैक्षिक एवं आर्थिक हितों की उन्नति एवं सामाजिक अन्याय एवं शोषण के सभी रुपों से उसकी सुरक्षा (धारा-46) है जिससे इन वर्गों का शैक्षिक कल्याण हुआ है। फलस्वरूप अन्याय व शोषण में कमी आई है।
संविधान की धारा 330 एवं 332 के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए लोकसभा एवं राज्य विधान सभाओं में उनकी जनसंख्या के अनुपात के आधार पर  स्थान सुरक्षित किये गये है। संविधान के अनुच्छेद 338 में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति की गई है जो संविधान के अन्तर्गत इन जातियों को प्रदत्त सुविधाओं के सम्बन्ध में सभी विषयों की जांच करेगा एवं राष्ट्रपति को निर्धारित समयों पर सुरक्षाओं की अनुपालना की अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा।
निष्कर्ष
समाज कल्याण का क्षेत्र मानव जीवन में बहुविध रूपों में मानव के लिए कल्याणकारी रहा है। इस हेतु किये गये सरकारी प्रयासों में अन्य कई क्षेत्र भी सम्मिलित हैं जिनका अनुपालन कानून द्वारा नियंत्रित दशाओं में समाज में हो रहा है। सरकार एवं जनता दोनों द्वरा इसे प्रशंसा एवं मान्यता दी गई है, अतएवं भविष्य में भी इसे अधिक गौरवमय भूमिका अदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह ठीक ही कहा गया है कि स्वर्ग वहीं पर है जहाँ लोग मिलजुल कर सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु कार्य करते हैं तथा नरक वहाँ है जहाँ पर कोई भी मानवता के प्रति सेवा की बात तक नहीं सोचता।

संदर्भ ग्रन्थ

  1. भारत में समाज कल्याण प्रशासन, डॉ0 डी0 आर0 सचदेव, किताब महल, इलाहाबाद, (2011)।
  2. T.N.chaturvedi and Shanta kohli Chandra(ed), Social Adminidtration. Development and change, New Delhi, Indian Institution of Public Administration, 1980, Px
  3. Forder, Concepts in Social Administration, London, 1974.
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  5. Durgabai Deshmukh, leadership role of voluntary organization in social Sevelopment and social welfareop. P-284.
  6. V.M. Kulkarni, Volntary Action in a Developing society, Indian institution of Public Administration new Delhi,1969, P-8.



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कांशीराम जीवन परिचय  KANSHI RAM BIOGRAPHY जन्म : 15 मार्च 1934, रोरापुर, पंजाब मृत्यु : 9 अक्तूबर 2006 व्यवसाय : राजनेता बहुजन समाज को जगाने बाले मान्यबर कांशीराम साहब का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के ख़्वासपुर गांव में एक सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हरीसिंह और मां श्रीमती बिशन कौर थे। उनके दो बड़े भाई और चार बहनें भी थी। बी.एस.सी स्नातक होने के बाद वे डीआरडीओ में बेज्ञानिक पद पर नियुक्त हुए। 1971 में श्री दीनाभाना एवं श्री डी के खापर्डे के सम्पर्क में आये। खापर्डे साहब ने कांशीराम साहब को बाबासाहब द्वारा लिखित पुस्तक "An Annihilation of Caste" (जाति का भेद विच्छेदन) दी। यह पुस्तक साहब ने रात्रि में ही पूरी पढ़ ली।और इस पुस्तक को पढ़ने के बाद सरकारी नोकरी से त्याग पत्र दे दिया। उसी समय उंन्होने अपनी माताजी को पत्र लिखा कि वो अजीबन शादी नही करेंगे। अपना घर परिबार नही बसायेंगे। उनका सारा जीवन समाज की सेवा करने में ही लगेगा। साहब ने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि उनका उनके परिबार से कोई सम्बंध नही रहेगा। बह कोई सम्पत्ति अपने नाम नही बनाय...

भारतीय संस्कृति एवं महिलायें (Indian culture and women) Bharatiya Sanskriti evam Mahilayen

-डॉ0 वन्दना सिंह भारतीय संस्कृति एवं महिलायें  Indian culture and women संस्कृति समस्त व्यक्तियों की मूलभूत जीवन शैली का संश्लेषण होती है मानव की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसकी संस्कृति ही होती है वास्तव में संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसमें रह कर मानव सामाजिक प्राणी बनता हैं संस्कृति का तात्पर्य शिष्टाचार के ढंग व विनम्रता से सम्बन्धित होकर जीवन के प्रतिमान व्यवहार के तरीको, भौतिक, अभौतिक प्रतीको परम्पराओं, विचारो, सामाजिक मूल्यों, मानवीय क्रियाओं और आविष्कारों से सम्बन्धित हैं। लुण्डवर्ग के अनुसार ‘‘संस्कृति उस व्यवस्था के रूप में हैं जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को संरचित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों  आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते है।  प्रस्थिति का व्यवस्था एवं भूमिका का निर्वहन कैसे किया जाये यह संस्कृति ही तय करती है किसी भी समाज की अभिव्यक्ति संस्कृति के द्वारा ही होता है। भारतीय संस्कृति एक रूप संस्कृति के एक रूप में विकसित न  होकर मिश्रित स...

युवा विधवाएं और प्रतिमानहीनता (Young Widows in India)

युवा विधवाएं और अप्रतिमानहीनता भारत में युवा विधवाएं  ‘‘जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते है’’ ऐसी वैचारिकी से पोषित हमारी वैदिक संस्कृति, सभ्यता के उत्तरोत्तर विकास क्रम में क्षीण होकर पूर्णतः पुरूषवादी मानसिकता से ग्रसित हो चली है। विवाह जैसी संस्था से बधे स्त्री व पुरूष के सम्बन्धों ने परिवार और समाज की रचना की, परन्तु पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री का अकेले जीवन निर्वहन करना अर्थात विधवा के रूप में, किसी कलंक या अभिशाप से कम नहीं है। भारतीय समाज में बाल -विवाह की प्रथा कानूनी रूप से निषिद्ध होने के बावजूद भी अभी प्रचलन में है। जिसके कारण एक और सामाजिक समस्या के उत्पन्न होने की संभावना बलवती होती है और वो है युवा विधवा की समस्या। चूंकि बाल-विवाह में लड़की की उम्र, लड़के से कम होती है। अतः युवावस्था में विधवा होने के अवसर सामान्य से अधिक हो जाते है और एक विधवा को अपवित्रता के ठप्पे से कलंकित बताकर, धार्मिक कर्मकाण्ड़ों, उत्सवों, त्योहारों एवं मांगलिक कार्यों में उनकी सहभागिका को अशुभ बताकर, उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को पूर्ण रूपेण प्रतिबंध...