भारतीय संस्कृति की सापेक्षता का एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण (A sociological analysis of the relativity of Indian culture)
भारतीय संस्कृति की सापेक्षता का एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण
(A sociological analysis of the relativity of Indian culture)
संस्कृत और संस्कृति दोनों ही शब्द संस्कार से बने हैं। संस्कार का अर्थ है कुछ कृत्यों की पूर्ति करना, एक व्यक्ति जन्म से ही अनेक प्रकार के संस्कार करता है जिनमें उसे विभिन्न प्रकार की भूमिकाएं निभानी पड़ती है। संस्कृति का अर्थ होता है विभिन्न संस्कारों के द्वारा सामूहिक जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति। यह परिमार्जन की एक प्रक्रिया है। संस्कारों को सम्पन्न करके ही एक मानव सामाजिक प्राणी बनता है। हमारी सामाजिक संस्कृति ही है जो हमारे समाज ने हमें भेंट की है इस सामाजिक विरासत को ही संस्कृति कहते हैं इसके अन्तर्गत मानव द्वारा निर्मित उस सम्पूर्ण व्यवस्था का समावेश होता है जिसमें रीतिरिवाज, रुढ़ियाँ, परम्पराएँ, संस्थाएँ, भाषा, धर्म, कला आदि का समावेश होता है जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होते हैं। संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती हुई निरन्तर आगे बढ़ती है साथ ही प्रत्येक पीढ़ी इसको परिवर्तित, परिवर्धित एवं विकसित करती है।
भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृतियों में से एक है। जिसमें नित्य, निरन्तरता, शाश्वत एवं स्थायित्व है। भारतीय संस्कृति अनादिकाल से, चिरकाल से नित्य के प्रति नवीनता लिए हुए शाश्वता और अपनी निरंतरता को बनाए रखा है। भारत की विशिष्ट संस्कृति इस देश को सम्पूर्ण विश्व के सापेक्ष एक विशिष्ट पहचान प्रदान करती है। सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद प्रतिची-प्राची के संगम द्वारा निर्मित भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता के भाव को प्रस्तुत करती है, वेदों से लेकर पुराणों, उपनिषदों तक के आध्यात्मिक ज्ञान के दर्शन कराती है, सत्य, निष्ठा एवं पवित्रता के अलौकिक सौन्दर्य के साथ ही समायोजन एवं समाकलन के गुण को धारण करते हुए लगभग 6000 वर्षों से विश्व पटल पर विद्यमान है। मरूस्थल से मैदान तक, पर्वत से लेकर पठार एवं समूद्र तट तक इसका फैलाव विविधता में एकता को प्रदर्शित करता है। आज जहॉ दुनिया के सभी देश अथवा सम्प्रदाय अपनी संस्कृति को विश्व पटल पर स्थापित करने के लिए, उसे एक अलग पहचान दिलाने के लिए अनवरत प्रयासरत हैं तथा उन्हीं प्रयासों के अनुरूप अपनी जीवन शैली निर्धारित करने में लगे है। वहीं भारतीय परिदृश्य में देखा जाय तो देश के हर राज्य की अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान होने के बावजूद हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन, पारसी एवं सिख धर्म एवं अन्य सभी धर्मां के मतावलम्बियों के खान-पान एवं रहन-सहन के तरीके उनके मतों के अनुरूप होने के साथ ही साथ बोल-चाल की भाषा भी अलग है। अतः स्पष्टतः कहा जा सकता है कि यहां हर मत एवं धर्म को मानने वाला अपनी अलग धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान रखता है। परन्तु भारतीयता का भाव देश के हर भाग में एवं हर व्यक्ति के मन में समान मिलता है, यह जुड़ाव जमीन से है न कि भौतिक आडम्बरों से, अपने पन से है न कि दिखावे से। इसी जुड़ाव एवं परस्पर मेल-जोल की भावना एवं सांस्कृतिक एकीकरण के आधार पर, देश को एक नयी एवं अक्षुण्य पहचान मिलती है। यह प्राचीन होते हुए भी अपनी नवीन विचारधाराओं को तथा अपने परम्पराओं को समेटती हुई आगे की ओर अग्रसर है तथा जनमानस के मस्तिष्क जिसमें मनोमालिन्यता समाहित हो गई है, उसे प्राच्छालित करती हुई नयी चेतना, नव-जागरूकता तथा नया जीवन एवं दिशा निर्देशन भी करती है। वैदिक काल से लेकर आज तक यह निरन्तर प्रवाहित धारा की भाँति, कभी न रूकने वाली परम्परा रहीं है।
ऐतिहासिक घटनाओं के तरफ अगर हम दृष्टि डालते है, तो भारत भूमि पर विदेशी आक्रमण के साथ-साथ यवन, शक, हुण, कुषाण, मुगल एवं अंग्रेजों ने भी अपनी पूरी क्षमता और दक्षता के साथ भारतीय संस्कृति को समूल रूप से उखाड़ फेकने का भरसक प्रयास किया है। फिर भी इसकी निरन्तरता के कारण इसे न कोई मिटा सका और न कोई अपने अनुसार मोड़ पाया, इसे न कोई नष्ट कर सका, नही कोई विलुप्त कर सका। आज भी भारतीय संस्कृति प्रकाश पुंज की तरह प्रकाशमय है जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश से लगातार विश्व को प्रकाशित करता रहता है, उसी प्रकार भारतीय संस्कृति अपनी प्रकाश-पूंँज से विश्व मानव समाज के अज्ञानरूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश फैलाने का कार्य सदैव करते आयी है।
इस प्रकार वैश्विक परिवेश के किसी भी संस्कृति की सापेक्षता 3 स्तर पर देखने को मिलती है।
1. उत्तम जीवन एवं आदर्श रास्ते पर ले जाना।
2. जीवन को शुद्ध एवं सरल बनाना।
3. जीवन को परिमार्जित करना।
किसी भी देश की संस्कृति वहां के संस्कारां का ही घनीभूत स्वरूप होती है। भारत की संस्कृति में युग-युग से संचित इन्हीं संस्कारों का प्रतिरूप दिखाई देता है। सहिष्णुता, उदारता, शुचिता और आत्मिक उत्थान हमारे संस्कारों का प्रतीक व विशिष्टताएं हैं जो कि हमारी संस्कृति में ही परिलक्षित होते हैं। भारतीय संस्कृति को गंगा-यमुनी संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है, जिसका प्रतीक चिह्न ही ‘पवित्र गंगा’ है। भारतीय संस्कृति की निर्मलता, सरलता और सहजता तथा पवित्रता की तुलना गंगा से की गई है। जिस प्रकार गंगा अपने उद्गम स्थल से निकलने के बाद भारतीय मैदानी पटल के बड़े भाग को सिंचित करती हुई एवं भारत के अन्य भागों में बहने वाली अनेकों छोटी-बड़ी नदियों के जल को अपने अन्दर समाहित कर एक आदर्श रास्ते से होते हुए गंगासागर में समागम करती है, ठीक उसी प्रकार भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता वाली कोमल भावना से अभिभूत है, जिसका प्रत्यक्षदर्शी हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी तक अविरल प्रवाहित गंगा की धारा के समान प्रवाहमान है। विभिन्न प्रकार की भाषाओं, रहन-सहन एवं आचार-विचार के बावजुद भी इसकी आत्मा एक है, जिसे विश्व आत्मा के रूप में परिभाषित किया गया है। भारत ही वह भूमि है जहां से विश्व के कई सारे धर्मों का जन्म हुआ और वह बाद में दुनियां के अन्य देशों में प्रसारित एवं प्रचारित हुआ। अर्थात कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति में बन्धन नहीं स्वतंत्रता का भाव है, यहां के लोग अपने जीवन की दशाओं के अनुरूप अपना धर्म ग्रहण कर सकते हैं, चूंक यहां अनादिकाल से ही ज्ञान की मुक्त धारा का कलरव पवाहमान है अतः यहां वास करने वाला हर व्यक्ति अपने धर्म के अलावा अन्य धर्मों के विषय में भी अच्छी खासी जानकारी रखता है। भारतीय संस्कृति में सम्पूर्ण पृथ्वी के लोग को एक कुटुम्ब के रूप में मान्यता दी गयी है, जिसको हम ’’उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम’’ कहते है। विश्व की कोई भी सभ्यता-संस्कृति सम्पूर्ण विश्व को आत्मसात् कर ले, ऐसा कही नहीं है। इसके बावजूद भी आज भारत की संस्कृति अनेकता में एकता की तिरंगा लहराने में नहीं चूकती है।
भारतीय संस्कृति देश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि सभी सीमाओं से परे है। यह सनातन संस्कृति ही है कि जो भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के मानव जाति में एकता, प्रेम एवं साहचर्य का भाव भरती है। भारतीय संस्कृति की अवधारणा मूलतः प्रकृति से जुड़ा हुआ है। संस्कृत साहित्य और प्रकृŸा वर्णन एक-दूसरे के परिपूरक है। सभी रचनाओं में, कलाओं में, परिधान में, पर्यावरण से सम्बन्धित प्रकृति-चित्रण को एक अन्यतम् स्थान दिया गया है। संस्कृत साहित्य में प्रकृति और प्राणी का शाश्वत सम्बन्ध बताया गया है। इसका उदाहरण विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद में समाहित है। भारतीय संस्कृति के सम्बन्ध में कहा गया है कि यह एक समाज उपयोगी संस्कृति है जिसमें सभी संसाधनों का समावेश किया गया है। भारतीय संस्कृति भारतीय समाज का परिचायक है, क्योंकि भारतीय संस्कृति ’सनातन धर्म’ का पालन करती है। भारतीय संस्कृति में अहिंसा को सर्वोपरि धर्म माना गया है, इसके मूल में जीव की व्यापकता का सिद्धांत है। भारतीय संस्कृति कर्म की प्रधानता, आध्यात्मिकता, प्राचीनता, अमरता, चिन्तन की स्वतंत्रता, सामूहिक कुटुम्ब प्रणाली, ग्रहणशीलता, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना, विश्व कल्याण की भावना, सहिष्णुता और उदारता तथा अनेकता में एकता इत्यादि गणों से ओत प्रोत है इसलिए यह सर्वधर्म सम्पन्न संस्कृति है। परन्तु समय और काल के उतार-चढ़ाव से कई प्रकार के व्यापक प्रभाव प्रलक्षित हुए है, जिसने भारतीय संस्कृति पर आघात पहुचाया है। प्राचीन युग, मध्य युग में भारतीय संस्कृति का अपना विशिष्ट और मनोरम बोल-बाला था, यद्यपि यह भी सत्य है कि आधुनिक सामाजिक व्यवस्था में आदर्श सामाजिक मूल्यों की गरिमा नष्ट होती जा रही है। यह वर्ण और जाति-व्यवस्था में, स्त्रियों की दशा में, सामंती व्यवस्था में, निरंकुश राजतंत्र में, विषमता और दासता के रूप में तथा आधुनिकता के मुख्य चुनौती के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। आधुनिकता के नाम पर भारतीय संस्कृति को बहुत ही कुठाराघात पहुँचा है। भौतिक परिवर्तन के कारण वेष-भूषा, रहन-सहन, खान-पान की शैली में परिवर्तन आ गया है, जिसे मूलतः सभ्यता का परिवर्तन कहा जा सकता है, न कि संस्कृति। सतह और भौतिक पर्यावरणीय परिवर्तन से परम्परा और संस्कृति को कोई आघात नहीं पहुचता है। भारतीय परम्परा पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि आदर्श जीवन का व्यवहारिक जीवन विकृत होता जा रहा है, किन्तु जीवन संस्कृति की कल्पना अंतरंग है। इस प्रकार विश्व जनित विभिन्न जातियों को एक पटल पर लाना भारतीय संस्कृति की अपनी विशिष्ट विशेषता है।
हमारी संस्कृति का मूल स्वरूप आध्यात्मिक अवश्य है, किन्तु इसमें समरसता और सहिष्णुता के परम तत्व भी समाहित हैं। भारतीय संस्कृति के निर्माण में अनेक जातियों और धर्मां का योगदान अवश्य रहा, किन्तु इस विविधता के बीच सदैव एक एकता के दर्शन होते रहे। एस. राधाकृष्णन के शब्दों में- ‘‘भारत का हजारों वर्षों का सांस्कृतिक इतिहास दर्शाता है कि एकता सूक्ष्म, किन्तु मजबूत धागा, जो उनके जीवन की अनंत विविधताओं से होकर जाता है, सत्ता समूहों के जोर देने या दबाव के कारण नहीं बुना गया, बल्कि भविष्य दृष्टाओं की दृष्टि, संतों की चेतना, दार्शनिकों के चिंतन और कवि कलाकारों की कल्पना का परिणाम है, और ये ही माध्यम हैं, जिनका राष्ट्रीय एकता को व्यापक, मजबूत तथा स्थायी बनाने में उपयोग किया जा सकता है।’’ भारतीय संस्कृति की आत्मा हमारे संविधान में भी दिखती है। हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है। धर्म निरपेक्षता रूपी यह सहिष्णुता हमें अपने ऋषि-मुनियों, विद्वानों व राजमर्मज्ञ सम्राटों से मिली है तभी तो अशोक महान कहते हैं- ‘‘वह व्यक्ति जो अपने धर्म का सम्मान करता है, दूसरों के अपने धर्म के प्रति निष्ठावान रहने की निंदा करता है और दूसरे धर्मां की तुलना में अपने धर्म को श्रेष्ठ बताता है, वह निश्चित ही अपने स्वयं के धर्म का अहित करता है। वास्तव में धर्मां के बीच सामंजस्य ही श्रेष्ठ धर्म है।’’ यह सामंजस्यता हमारी संस्कृति में विद्यमान है। इसी कारण हमारी संस्कृति ने विभिन्न धार्मिक परम्पराओं को आधार प्रदान किया हुआ है।
हमारी संस्कृति में आत्मिक उत्थान की भी भावना निहित रही है। आत्मिक उत्थान के लिए ही हमने ज्ञान प्राप्त किया और श्रेष्ठ लोगों के सानिध्य में रहकर अपनी संस्कृति को समृद्ध बनाया। कठोपनिषद् में कहा भी गया है- ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरात्रिबोधतः’। यानी उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरूषों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। हमारी संस्कृति में निहित इसी अवधारणा ने हमें समृद्ध बनाया। भारत को विश्व गुरू का नाम दिलाया। भारतीय संस्कृति समाज का कल्याण करती है, क्योंकि यह सामुदायिकता को प्रश्रय देती है। यह वह संस्कृति है, जो अनेक धर्मों को साथ लेकर चलती है। वस्तुतः धर्म अपने विस्तृत अर्थों में संस्कृति के समान ही हैं और उससे बाहर भी है। ‘जियो और जीने दो’ के रूप में हमारी संस्कृति मंगलकारी और कल्याणकारी है। देश में अनेक धर्म है और सभी धर्मां के प्रति हमारे देश में अनूठा सामंजस्य देखने को मिलता है। तीज त्योहार हम मिल कर मनाते हैं। हमारी संस्कृति विश्व पटल पर हर भारतीय का प्रतिनिधित्व करती है। जिसमें दिखता है भारतीय मस्तिष्क, भारतीय मेधा एवं आंदोलनों और संस्कृतियों का बौद्धिक प्रभाव, समरसता, सद्भाव, समायोजन का गुण और प्रत्यक्ष ज्ञान । अतः कहा जा सकता है हमारी संस्कृति स्वतंत्रता की संस्कृति है, लोकतंत्र की संस्कृति है।
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