भारतीय संस्कृति : एक संतुलित जीवन पद्धति
( Indian Culture: A balanced life system)
संस्कृति का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है एवं उसका क्षेत्र सार्वभौमिक और सार्वकालिक है। इस धरती पर मानव के जन्म के साथ ही उसका उदय हुआ और मानव जीवन के विकास के अनुरूप ही उसकी धारा निरन्तर आगे बढती गयी। मानव जीवन के इतिहास के निर्माणक जितने भी साधन हैं,उनमें संस्कृति का स्थान मुख्य है। विष्व के प्रत्येक राष्ट्र की अपनी संस्कृति है। युगों-युगों से प्रत्येक राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक थाती को सहेज कर रखता आया है जो कि उसकी गरिमा का द्योतक रहा है। किसी भी राष्ट्र की उन्नति का सीधा सम्बन्ध उसकी संस्कृति से होता है। संस्कृति ही वह तत्व है जो एक राष्ट्र की परम्पराओं को अन्य से अलग करते हुये उसे एक विषिष्ट पहचान देती है। भारत प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक गतिविधियों और परम्पराओं में विष्व का अग्रणी राष्ट्र रहा है। जब समस्त विष्व की सभी सभ्यतायें प्रगति के शैषवकाल में विचरण कर रही थी, तब भारतीय ऋषि तत्वज्ञान की गहन मीमांसा, चिंतन एवं मनन में लीन थे।यथा-
ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं समस्ततत्वार्थ विलोकिदक्षम् ।तेजोइनपेक्षं विगन्तान्तरायं प्रवृतित्त मत्सर्व जगत्त्रयोपि ।।1
प्राचीन भारतीय चिंतकों एवं ऋषियों ने देष में सामाजिक,सांस्कृतिक,षैक्षणिक धार्मिक,आघ्यात्मिक आदि क्षेत्रों में ऐसी गतिविधियों की नींव रखी, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होकर अक्षुण्ण परम्पराओं के कालक्रम में सदैव जीवंत रही।
भारतीय संस्कृति में एक संतुलित जीवन की यात्रा के दो अंग है-(1) सभ्यता और (2) संस्कृति। संस्कृति एवं सभ्यता दो भिन्न-भिन्न स्थितियों की द्योतक हैं। एक को आत्मा तथा दूसरे को शरीर कहा जा सकता है। संस्कृति आन्तिरिक नैर्मल्य है तो सभ्यता वाह्य प्रसाधन। एक में शांति तो दूसरे में चमक-धमक, एक में प्रबुद्धता, तो दूसरी में उपयोगिता। एक में निःश्रेयस है, तो दूसरी में अभ्युदय। इस तरह से सभ्यता सभा (समाज) के योग्य बनने का आदेष देती है। जैसे- हमारा उठना, बैठना, व्यवहार करना, वेषभूषा, खान-पान, संवाद-विवाद, कला, कुषलता, नृत्यगीत इत्यादि। जिस बात को समाज पसन्द करता है वह सभ्यता है।2
संस्कृति का अर्थ हे संस्करण, परिमार्जन, शोधन,परिष्करण अर्थात ऐसी क्रिया जो व्यक्ति में निर्मलता का संचार करे। हमारे मानवीय साधन के पॉच सोपान हैं- शरीर, आत्मा, मन, बुद्धि और अध्यात्म और इन्हीं की सिद्धि का नाम ही संस्कृति है। वैदिक काल से लेकर बारहवीं शताब्दी तक जिन तत्वों से भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ, वही भारतीय संस्कृति की नींव हैं। अनेक व्यक्ति मिलकर समाज तथा जाति का निर्माण करते हैं। अतः निर्मल एवं संस्कृत व्यक्तियो से समाज तथा राष्ट्र भी संस्कृत होते है और उनके निर्मलता विधायक तत्व संस्कृति के मूल सूत्र बन जाते हेैं। विषुद्धि, निर्मलता, परिष्कृत एक मानव से चलकर जैसे समाज तथा जाति की सम्पत्ति बनती है, उसी प्रकार विष्वभर की थाती भी बन सकती है। संस्कृत के इस व्यापक रूप को वेद ‘विष्ववारा संस्कृति‘ का नाम देता है। भारतीय संस्कृति का मूल वेद है जो हमें संस्कृति एवं सभ्यता के आधार पर एक संतुलित जीवन पद्धति को सुव्यवस्थित रूप से जीने एवं चलाने का मार्ग प्रषस्त करता है।
भारतीय जीवन व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण व्यवस्था रही है- सामूहिक जीवन का चार वर्णों में तथा व्यकितगत जीवन का चार आश्रमों में विभाजन एवं ष्लिष्ट और सूक्ष्म ढ़ंग से संयोजन। वैदिक लोकजीवन अत्यन्त व्यवस्थित एवं सुचारू था ओैर जीवन का लक्ष्य सामूहिक उन्नति थी। इसलिये समन्वित जीवन को पूर्ण एवं सफल बनाने के लिये संस्कारों, आश्रमों, यज्ञों तथा चतुर्वर्गों का ज्ञान अत्यन्त आवष्यक है क्योंकि समन्वित जीवन की मुख्य भित्ति यही है। इन्हीं पर सारा सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन व्यवस्थित था।
संस्कार :- प्राचीन काल से समाज में व्यक्तित्व के उत्थान के निमित्त संस्कारों का संयोजन किया गया था जिसमें मनुष्य का व्यक्तिक और सामाजिक विकास हो सके तथा उसका दैहिक और भौतिक जीवन सुव्यवस्थित ढ़ग से उन्नत हो सके। व्यक्ति के असंस्कृत स्वरूप को सुसंस्कृत और अनुषासित करने के निमित्त संस्कारों की अभिव्यक्ति की गई। धर्म, यज्ञ और कर्मकांड इसकर मूल रहा है। इस तरह से संस्कार का आधार धर्म रहा है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने जीवन को उन्नत, परिष्कृत और सुसंस्कृत बनाता है। ये संस्कार मनुष्य के जन्म के पहले से ही प्रारम्भ होकर उसकी मृत्यु के पष्चात् तक बना रहता है।मानव जीवन के विकास के लिए मानसिक संकल्पों और विचारों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वैदिक लोक जीवन में मनुष्य के समस्त जीवन यात्रा को सोलह संस्कारों यथा- गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राषन, चूड़ाकर्म, कर्णवेद, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, सन्यास और अन्त्येष्टि में विभाजित कर दिया गया था। इनका लक्ष्य था मन,षरीर तथा आत्मा को श्रेष्ठ बनाना। प्राचीन काल से आज तक अनेक परिवर्तनों के बाद भी समाज में संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए सभी संस्कृतियों में संस्कारों का होना अनिवार्य है, जो उनकी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था तथा कार्य प्रणाली को अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार भारतीय समाज और संस्कृति में संस्कार का अभूतपूर्व स्थान है।3
आश्रम व्यवस्था :-प्राचीन समाज में आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। मनुष्य के जीवन को सुसंस्कृत,सुगठित और सुव्यवस्थित करने के निमित्त भारतीय समाज में आश्रम व्यवस्था जैसी संस्था का नियोजना की गयी है। श्रेय की कामना वाले व्यक्ति जहॉ पहुॅच कर श्रम से मुक्त होते हैं, उसे आश्रम कहते है। ‘आश्रम्यनत्येषु श्रयोऽर्थिथः पुरूषा इत्याश्रमाः‘। अमरकोष के टीकाकार भानुजी दीक्षित का मत है कि जिसमें पहुंचकर सम्यक् प्रकार से श्रम किया जाये, वह आश्रम है। आज जीवन की वह स्थिति है, जिसमें कर्तव्य पालन करने के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाता है।4
“आश्रम” शब्द संस्कृत के ‘श्रम्‘ धातु से बना है। इसके अन्तर्गत मनुष्य अपने जीवन में श्रमपूर्वक विभिन्न आश्रमों के कार्य सम्पन्न करता था तथा प्रत्येक आश्रम के पष्चात् आगामी आश्रम के लिये सन्नद्ध होता था। यह सम्पूर्ण योजना श्रमयुक्त थी जो मनुष्य के जीवन के परिश्रम के आधार पर विकसित होती थी। अतः आश्रम का अर्थ उद्योग,प्रयास अथवा प्रयत्न है।आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत सम्पूर्ण मानव जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास- इन चार आश्रमों के माध्यम से मानव जीवन के चार पुरूषार्थ क्रमषः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सेवन करता हुआ मानव पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।
ब्रह्मचर्य आश्रम :- ब्रह्मचर्य विद्यार्थी जीवन का आत्मसंयम था जिसमें वह 25 वर्षों तक रहते हुये षिक्षा ग्रहण करता था। इसमें व्यक्ति की मानसिक,बौद्धिक,चारित्रिक और आध्यात्मिक उन्नति होती थी। ज्ञान एवं षिक्षा की प्राप्ति से उसका मस्तिष्क विकसित होता था साथ ही अनुषासन एवं संयम के अभ्यास से उसका भावी जीवन निर्धारित एवं सुनियोजित मार्ग पर अग्रसर होता था।
गृहस्थाश्रम :- वैदिक कालीन समाज में गृहस्थ आश्रम का अत्यधिक महत्व रहा है इसी पर अन्य सभी आश्रम भी आश्रित थे। यह ब्रह्मचारी के समावर्तन के पष्चात् विवाह के साथ ही प्रारम्भ होता था। इसकी अवधि 25 से 50 वर्ष तक मानी गयी है। मनु ने गृहस्थाश्रम का उल्लेख करते हुये लिखा है कि-गृहस्थ प्रति दिन ज्ञान और अन्न से तीनों आश्रमों का भरण-पोषण करने के कारण सर्वश्रेष्ठ है। यथा-
यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेव चान्वहम् ।गृहस्थेनेव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमों गृही ।।5
गृहस्थाश्रम में पंच-महायज्ञों का करना अनिवार्य माना गया है। वेदो में सर्वप्रथम स्वाध्याय ‘ब्रह्मयज्ञ‘ का विधान है। दूसरा ‘देवयज्ञ‘यानि हवन है, इसी को ‘अग्निहोत्र‘ भी कहते है। पूर्वजों तथा जीवित गुरूजनों का यथोचित सत्कार ‘पितृयज्ञ‘ है। निरीह जन्तुओं को भोजन कराना ‘बलिवैष्व-देव‘ और बिना सूचना दिये आये हुये अभ्यागत का पूर्णरूपेण स्वागत ‘अतिथि यज्ञ‘ है। अतिथि का मान वैदिक लोक जीवन की विषेषता रहा है। इन पंच यज्ञों से अवषिष्ट अन्न को ‘अमृत‘ कहा जाता था। इससे यज्ञों की महत्ता और वैदिक सांस्कृतिक जीवन की सम्पन्नता का सहज बोध हो जाता है।
वर्ण व्यवस्था :-भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत चातुर्यवर्ण का विकास देष, काल और परिस्थिति के अनुसार सवंर्द्धित होता रहा है। वर्ण मर्यादा गहस्थ के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। ‘चातुर्यवर्णमया सिष्टं गुण कर्म विभागसः‘।6 गीता में श्रीकृष्ण कहते हें कि चार वर्णो की सृष्टि मैंने गुण और कर्म के आधार पर की है। समाज में सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुये षिक्षण,सुरक्षा,व्यवसाय और सेवा कार्य के लिये भारतीय हिन्दू समाज में चार वर्णो की रचना की गयी है। हमारी संस्कृति ने शूद्र वर्ण से ब्राह्मण वर्ण तक विकास की एक सुन्दर श्रृंखला प्रस्तुत की है। वैदिक काल में ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैष्य और शूद्र वर्णों की उत्पत्ति क्रमषः पुरूष के मुख, बाहु, ऊरू और चरण भाग से बतायी गयी है। यथा-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः ।ऊरू तदस्य यद्वेष्यः पद्भ्यां शुद्रो अजायत् ।।7
जन्म से हम सभी शुद्र हैं, पर संसकार हमें द्विज की संज्ञा देते है। वैष्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण तीनों द्विज है। द्विज समाज की सेवा करने के योग्य समझे गये है। वैष्य का कार्य कृषि,गोपालन तथा व्यापार द्वारा धन-धान्य का अर्जन करना है। क्षत्रिय समाज का जागरूक प्रहरी है उसे समाज के संरक्षण में अपने प्राणों की आहुति तक देनी पड़ती है। गीता में क्षत्रिय के कार्यों के बारे में बतलाते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
षौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।दानमीश्रवरभावस्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।8
ब्राह्मण समाज का पथ प्रदर्षक हैं। वह समाज में वेदाध्ययन एवं शील,वृत्त और सदाचरण द्वारा समाज को षिक्षित करता है। शूद्र इन तीनों वर्णो की सेवा-सुषुषा करता था। उस काल में अपना कर्म क्षेत्र चुन लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। प्रायः एक ही मनुष्य समय-समय पर अपने वर्ण बदल सकता था।गीतानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य व षूद्र इन चारों के कर्म प्रकृति से उत्पन्नसत्वादि गुणों के कारण पृथ्क बनें हैं। यथा-
ब्राह्ममणक्षत्रियविषां षूद्राणां च परन्तप। कर्माणि प्रविभ्क्तानि स्वभावभथवैर्गुणैः।।9
वर्ण व्यवस्था की इस तरह से दो प्रधान विषेषतायें थीं-
1. समता का भाव जिसे हम वैदिक साम्यवाद कह सकते है।
2.वर्णों का वर्गीकरण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म के अनुसार था।
इस प्रकार से इन वर्णों का विभाजन जन्ममूलक नही था। वर्ण व्यवस्था वास्तव में समाज का चारित्रिक मूल्यांकन था, जो स्थिर न होकर सदैव गतिषील और परिवर्तनवादी है। वर्ण व्यवस्था एकात्मवाद पर आधरित थी जो एक मानव समाज और एक प्रयोजन में विष्वास करती थी। यदि आज वर्ण व्यवस्था ने फूहड़ जाति व्यवस्था का रूप धारण करलिया है, तो समय की मांग है कि उसही पुर्नव्याख्या हो और कम से कम इसमें से जन्म की षर्त हटा दी जाए। इसे ेरण यह है कि चारीत्रिक या गुणात्मक और षैक्षिक दृष्टि से आज भी सारे संसार में चारों वर्ण विद्यमान हैं। प्रज्ञान विकसित करने वाला वर्ग ब्राह्मण हैं, समस्त षासक वर्ग क्ष्त्रिय हैं, समस्त व्यापारी वर्ग वैष्य हैं और समस्त षारीरिक श्रम करने वाले षूद्र हैं। वे चाहे जन्म से कुछ भी हों, परन्तु इनमें से कोई हेय नहीं है, सभी उपयोगी हैं। इस प्रकार से समाज में यदि सभी वर्ण अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें तो समग्र समाज मंगलमय बन सकता है।
वानप्रस्थाश्रम :- यह आश्रम 50 वर्ष की अवस्था से लेकर 75 वर्ष की अवस्था तक रहता था। इसमें व्यक्ति त्याग,तप, अहिंसा, आत्मविस्तार एवं ज्ञान का अर्जन करता था। उसका प्रधान उद्देष्य था आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा समस्त भौतिक स्पृहाओं का उपक्रम। विद्या, षरीर की षुद्धि ओैर तपस्या की वृद्धि के लिए वानप्रस्थ का सेवन किया जाता था।10(वि़द्या तपोविवृद्धियर्थ षरीरस्य च षुद्धये।।)वह षीत और उष्ण को सहन करते हुए तपष्चर्या करता था, इसलिए वह तपःषील था।11
सन्याश्रम :- यह पूर्ण रूप से आध्यात्मिक अनुसंधान के लिये आत्मसमर्पण था। यह आश्रम 75 वर्ष से 100 वर्ष तक चलता है। इसमें सन्यासी समस्त कर्म फलों से अपनी आसक्ति त्याग देता है। यथा-‘कर्म फलां न्यासः सन्यासः‘।12 अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन एवं एकांकी जीवन व्यतीत करना, भिक्षाटन करता हुआ वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार से शतपथ ब्राह्मण में चारों आश्रमों का उल्लेख करते हुये कहा गया हैं कि-
ब्रह्मचर्याश्रमसमाप्त गृहीमवेद,गृही भूत्वा वनीभवेह। वनीभूत्वा प्रब्रजेत्।13
इस प्रकार से यह कहना समीचीन है कि आधुनिक युग में चाहे जितना विकास हुआ हो, चाहे जितने नये मानवीय मूल्यों के प्रति आकर्षण बढ़ा हो फिर भी आश्रम व्यवस्था के गुणों को वैयक्तिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं चारित्रिक दृष्टि से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि वैयक्तिक विकास और सामाजिक कल्याण की दृष्टिहै। पर यह बात भी सत्य है कि, युगानुकूल इसमें संषोधन किया जा सकता है, परन्तु इसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता है।
पुरूषार्थ :- मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरूषार्थ के माध्यम से होता है। पुरूषार्थ मनुष्य का वह आधार है जिसके अनुपालन से वह अपना जीवन जीता है तथा विभिन्न कर्तव्यों का मनोनिवेषपूर्वक पालन करता हैं। उसके जीवन के उत्कर्ष के निमित्त प्राचीन काल में आश्रम की व्यवस्था की गयी थी । अतः पुरूषार्थ से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास तो होता ही है साथ ही समाज का भी उत्कर्ष होता है। धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष मनुष्य के चार पुरूषार्थ माने गये हैं, जिन्हें शास्त्रकारों ने ‘चतुर्थवर्ग‘ कहा है। ये चारों पुरूषार्थ चारों आश्रमों का सैद्धांतिक पक्ष है और आश्रम पुरूषार्थ का व्यवहारिक पक्ष।पुरूषार्थों से ही मनुष्य अपनी बौद्धिक,नैतिक,षारिरिक,भौतिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष करता है। इस प्रकार ‘पुरूषार्थ-चतुष्टय‘ मानव जीवन के चार मूल्य हैं जिनकी उपलब्धि समस्त मानव जाति को करनी ही है। इसने अभ्युदय के माध्यम से निःश्रेयस की ओर बढ़ने की एक सम्यक् योजना प्रस्तुत की और मानव को उचित निर्देष दिया। महाभारत में उल्लेख है कि विद्वान व्यक्ति धर्म अर्थ और काम का सेवन उचित समय में सन्तुलित ढ़्रंग से करें। यथा-
धर्मं चार्थं च काम च यथवद् वदतावरं।विभज्यकाले कालज्ञः सर्वान सेवंत पंडितः।।14
आचार-विचार, शासन, षिक्षा, धर्म, संस्कार और साहित्य आदि पुरूषार्थएवं आश्रम व्यवस्था केअन्तष्चेतना के मूल उपादान अथवा तत्व है। इस सर्वांगीण उन्नति के लिये वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था का पालन करना आवष्यक है। मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम के ‘स्वधर्म‘ का पालन कर के ही अपनी व अपने समाज की उन्नति करने में समर्थ हो सकता है। इससे मनुष्य को इहलौकिक सुख की प्राप्ति व समृद्धि का अवसर मिलता है। इस प्रकार से भारतीय संस्कृति अत्यन्त ही समृद्ध एवं आचार परक थी जो कि समस्त मानव जाति के लिये उपयोगी एवं उन्नतषील प्रतीत होती है।
परन्तु कालान्तर में समाज व्यवस्था के भीतर रूढ़ियाँ एवं और निषेध आ गये जिसके परिणामस्वरूप इन सभी व्यवस्थाओं (वर्ण, आश्रम, यज्ञ एवं पुरूषार्थ) में गिरावट आ गयी तथा समूची व्यवस्था का रूढ़ी वर्गीकरण एवं विषेषाधिकार तथा निषेध के नियमों के रूप में अधःपतन हो गया एवं अन्ततोगत्वा अनम्य जाति व्यवस्था के रूप में अधोमुखी हो गयी। यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिस भारतीय संस्कृति ने विष्व को राह दिखाई एवं दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद,उपनिषदों के ज्ञान, महाभारत के राजनैतिक दर्षन, गीता की समग्रता, रामायण के रामराज्य, पौराणिक जीवन दर्षन एवं भागवत दर्षन से लेकर के संस्कृति के तमाम अध्याय रचे, आज उसी संस्कृति को पाष्चात्य संस्कृति से खतरा उत्पन्न होने लगा है। जिस देव-वाणी संस्कृत में संस्कृति के तमाम अध्यायों की रचना हुई, आम उसी का विरोध किया जाने लगा है। वस्तुतः भारतीय परिपेक्ष्य में संस्कृत मात्र भाषा का पर्याय नहीं है बल्कि भारत का स्वर्णिम अतीत और भारतीयसंस्कृति की अद्भुत जीवन्त अभिव्यक्ति का पर्याय भी है।
आज वर्तमान समय में ‘संस्कृति‘ शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है उससे उसकी वास्तविकता, महत्ता एवं व्यापकता संकुचित हो गयी हैं। यही कारण है कि भारतीय वांग्मय परम्पराओं और जीवन में संस्कृति की जो अजस्त्र धारा आदिकाल से निरन्तर प्रवाहित होती चली आ रही है, उसको उस रूप और अर्थ में हृदयंगम न किये जाने के कारण आज भारतीय संस्कृति का स्तर गिर गया है। यह सच है कि वर्तमान युग हमारी अस्मिता में अव्यवस्था तथा अराजकता उत्पन्न करके विकास की आवष्यकता से हमें अवगत कराता है साथ ही इसकी पूर्ति केवल ऐसी अभिनव व्यवस्था के द्वारा हो सकती है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रकृति के अनुसार अपने समग्र विकास के लिये अवसर और सुविधायें प्रदान की जाती हैं। यही संस्कृति के सांप्रतिक विकास की अपरिहार्य नियति प्रतीत होती है।
इस प्रकार से संस्कृति के इस सदाषय धारा में जहॉ तक भारतीय संस्कृति का सम्बन्ध है, उसकी जानकारी प्राप्त करने के लिये किसी विषेष प्रयत्न तथा साधन की आवष्यकता नही है। वह तो स्वतः ही स्पष्ट है और जीवन्त है। इकबाल ने यूँ ही नही कहा कि-”सारे जहॉ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा............ सदियों रहा है दुष्मन दौरे जहॉ हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।“
संदर्भ सूची :-
1. सुभाषित रत्न संग्रह, पृ०,194
2. डा.किरण कुमारी, वैदिक साहित्य और संस्कृति, पृ०,148
3. जटाषंकर मिश्र, प्रचीन भारत का सामाजिक इतिहास, पृ०, 81-82
4. हिन्दी विष्वकोष, प्रथम खण्ड, पृ०, 427
5. मनुस्मृति
6. गीता, 4/13
7. ऋग्वेद, 10.90.12
8. गीता, 18/43
9. गीता, 18/41
10. मनुस्मृति, 6.30
11. अर्थषास्त्र, 1.3
12. गीता, 18/2
13. शतपथ ब्राह्मण
14. महाभारत, 33/24
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**जूली सिंह
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