सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

युवा संस्कृति एवं सामाजिक अन्तर्द्वन्द्व एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण / Youth Culture and Social Conflict (Yuva Sanskriti evam Samajik Antardvand)

            युवा संस्कृति एवं सामाजिक अन्तर्द्वन्द्व 

Youth Culture and Social Conflict

सारांश-

किसी समाज या राष्ट्र के युवा उस समाज या राष्ट्र के नव निर्माण में  अपना अक्षुण्य योगदान देते हैं। हमारा भारत वर्ष दुनियाँ के अन्य देशों की तुलना में एक युवा देश है। देश में 34 फीसदी जनसंख्या युवाओं की है, इतिहास साक्षी है कि राष्ट्र की भाग्य लिपियों को युवाओं ने ही अपने रक्त की स्याही से लिखा है। लेकिन आज राष्ट्र की संस्कृति निरंतर तेजी से परिवर्तित होती जा रही है क्योंकि युवा वर्ग अपनी परम्परागत जीवन शैली, विचारों को त्याग कर, अपनी एक नवीन जीवन शैली (संस्कृति) बनाने के लिए अग्रसर है। जिससे भारतीय संस्कृति संक्रमण काल की दौर से गुजर रही है। युवा संस्कृति ने युवाओं में एक नवीन जीवन का सूत्रपात किया है लेकिन वहीं दूसरी तरफ युवावर्ग में सामाजिक अन्तर्द्वन्द की भावना को भी जन्म दिया है।

युवावस्था कोई अवधारणा या सिद्धांत नहीं बल्कि यह मनुष्य के जीवन की एक सतत् प्रक्रिया का घटक व बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के बीच की संक्रमण कालीन अवस्था है। ’युवा’ शब्द को मनो- दैहिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दोनों आधारों पर परिभाषित किया जा सकता है। शारीरिक दृष्टि से यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति में कुछ शारीरिक परिवर्तन होते है, मानसिक दौर की यह अवस्था उत्साह, उमंग, कामुकता, चंचलता, चपलता और कुछ करने की तमन्ना जैसी भावनाओं और उद्वेगों एवं उन्मेषों से भरी होती है। युवा एनर्जी अर्थात उर्जा का ही प्रतिरूप है। दुसरा पक्ष यह है कि युवा आशावादी होते हैं। विभिन्न समाजों में युवावस्था की गणना भिन्न-भिन्न आधार पर होती रही है। सामाजिक रूप से देखें तो सामान्यतः 16वें वर्ष से युवावस्था का आगमन मानते हैं वहीं वैधानिक दृष्टि से 18 वर्ष या उससे ऊपर के युवा वर्ग को युवा मानकर उन्हें कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किया जाता है। पर देखा जाय तो युवा अवस्था की कोई सार्वभौमिक आयु निर्धारित नहीं हो पायी है।

’’युवा संस्कृति’’ अपने आप में विशिष्ट प्रकार की संस्कृति है जो प्रमुख रूप में संगीत, फैशन शैली तथा अवकाश के क्षणों में प्रयोग पर केन्द्रित होती है। युवावस्था मुख्यतः आधुनिक औद्योगिक समाजों की एक विशिष्ट घटना है। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात एक सामाजिक श्रेणी के रूप में युवाओं पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाने लगा, क्यांकि जटिल समाजों के विकास में युवावस्था को विशेष चुनौतीपूर्ण माना गया। यही कारण है कि इन आधुनिक समाजों में युवावस्था को एक सामाजिक समस्या समझा जाता है।

युवा कहे जाने वाले एक सामाजिक वर्ग ने अपनी-अपनी परम्परागत जीवनशैली, विचारों को त्याग कर एक अपनी नवीन जीवन शैली, पहनावा, खान-पान, बात-चीत और व्यापार के तौर-तरीकों को अपना कर अपनी एक अलग पहचान बना ली है। परम्परागत रूप से चली आ रही मान्यताओं, रूढ़ियों, सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों, मानदण्डों को त्याग कर नये विचारों से पोषित ’’युवा संस्कृति’’ एक विशिष्ट प्रकार की जीवन-शैली है जो समाज में नई दृष्टि की अवधारणा के रूप में दृष्टिगोचर है। जहाँ एक तरफ युवाओं ने एक नई संस्कृति को विकसित कर अपनी और अपने राष्ट्र के विकास के पथ को प्रशस्त किया है वहीं युवा संस्कृति ने युवकों में कुण्ठा, विचलन पीढ़ी अन्तर्द्वन्द्व और आज्ञाकारिता को उत्पन्न कर अन्तर्द्वन्द्व की भयावह स्थिति को नये रूप में जन्म दिया है। अन्तर्द्वन्द्व की विवेचना करने से पहले हम संस्कृति की विवेचना करेंगे।

संस्कृति मनुष्य का वह पर्यावरण है जिसका निर्माण स्वयं मनुष्य के द्वारा होता है। हम जितने भी भौतिक पदार्थो, विश्वासों, आदतों, व्यवहारों के ढंगों और परम्पराओं से घिरे हुए है, निश्चय ही हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करने में उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है।

वैचारिक रूप से देखा जाय तो संस्कृति का अर्थ लोग अपने-अपने विवेक के आधार पर लगाते है, नैतिक दृष्टि से संस्कृति का सम्बन्ध नैतिकता, सच्चाई, ईमानदारी, आदर्श नियमों एवं सद्गुणों से है। हीगल, काम्ट, लावेल आदि ने संस्कृति का नीतिशास्त्रीय अर्थ में प्रयोग किया है। इस अर्थ में संस्कृति का सम्बन्ध उन वस्तुओं से है जो मानव जीवन को आनन्द प्रदान करती है जो सुन्दर है, जो ज्ञान से सम्बन्धित हो, जो सत्य है और जो मानव के लिए कल्याणकारी एवं मूल्यावान है। वहीं प्रसिद्ध मानवशास्त्री मजूमदार और मदान ’’लोगों के जीने के ढंग को ही संस्कृति मानते है।’’

टायलर ने कहा है कि ’’संस्कृति समग्र जटिलता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून तथा इसी प्रकार की उन सभी क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। अगर हम संस्कृति को समाजशास्त्रीय अर्थ में देखें तो ’’संस्कृति मानव के व्यक्तित्व एवं क्रियाओं का निर्धारण करती है।

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ’’संस्कृति हमारे रहन-सहन सोचने समझने की शैली, हमारे प्रतिदिन की बातचीत में, कला साहित्य, धर्म, मनोरंजन तथा आमोद-प्रमोद में हमारे स्वभाव की अभिव्यक्ति है।

इस प्रकार युवा मनस से सम्बद्ध वैचारिक परिवलय ’युवा संस्कृति’ है। भारतवर्ष आज युवाओं का देश है, इसमें लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या युवा वर्ग में समाहित हैं। आधुनिक, औ़द्योगिक, वैश्वीकरण एवं वैज्ञानिक तार्किक उन्मेष के कारण परम्पराएँ, मान्यताएं, मूल्य, सतत् परिवर्तनशील है। पीढ़ीगत अन्तराल सर्वत्र परिलक्षित है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा व्याप्त है। इस दुविधा की स्थिति ने युवा वर्ग में एक नवीन संस्कृति को जन्म दिया है। वैयक्तिकरण तथा संस्थागत मान्यताओं की पकड़ ढ़ीली पड़ने के कारण आज युवाओं की जीवन विधाद्वन्द्व ग्रस्त भौतिकोन्मुख है। इस सामर्थ्य ने नवीन युवा संस्कृति को जन्म दिया है।

वर्तमान समय में संस्कृति का जो स्वरूप उभर कर सामने आया है अधिकाधिक युवाओं द्वारा पोषित हो रही है। युवाओं द्वारा परम्परागत संस्कृति को संरक्षण एवं सम्वर्धन के साथ-साथ वर्तमान समाज में जो नयी संस्कृति को जन्म दिया है वह एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में परिलक्षित हो रही है, जो मूर्त तथा अमूर्त रूप से दृष्टव्य है। सामाजिक रूप से युवा संस्कृति की विवेचना करें तो आज युवा वर्ग में खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा तथा भाषा में नवीन संस्कृति का उदय देखा जा सकता है। उसी प्रकार आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, शै़क्षणिक संस्थाओं में अनेक नवीन संस्कृति के स्वरूप परिलक्षित होते हैं। वर्तमान समय में युवा ने अपने जीवनशैली के अनुरूप नवीन संस्कृतियों को जन्म देकर विशिष्ट संस्कृति का उद्घोष किया है।

युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द :-

जहाँ एक तरफ युवाओं द्वारा विकसित नई संस्कृति ने वैचारिकी, भौतिक जीवन, सामाजिक जीवन मे नये आयाम विकसित किये हैं, वहीं पर युवा वर्ग की इच्छाओं, आवश्यकताओं, परम्परागत मूल्यों तथा कुशलता को दूसरे व्यक्तियों के द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं होती तो उसके अवचेतन मन में एक प्रकार का अन्तर्द्वन्द्व, असंतोष, निराशा और कभी-कभी तनाव उत्पन्न होने लगते है। ये तनाव कभी सामान्य होते हैं तो कभी कुछ विशेष परिस्थितियों में अत्यधिक उग्र रूप धारण कर लेते है एवं कभी-कभी समाज में विचलन की स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। बच्चों के मन में भी निराशा और तनाव उत्पन्न होते है लेकिन अपनी असमर्थता के कारण वे उसे व्यक्त नहीं कर पाते। समाज में प्रौढ़ और वृद्ध व्यक्ति अपने अनुभवों तथा  उत्तरदायित्वों के कारण परिस्थितियों से समझौता कर लेते है लेकिन युवा वर्ग न तो स्वयं को समर्थ्य समझता है, न ही उसके पास जीवन के अधिक अनुभव होते है। युवा एक ओर परिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त होना चाहता है और दूसरी ओर स्वयं में अदम्य उत्साह तथा शक्ति का अनुभव करता है। इसके फलस्वरूप वह परिस्थितियों तथा समस्याओं से निपटने के लिए कोई समझौता करना नहीं चाहता जिससे उसमें अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण युवा वर्ग व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से अपने अन्तर्द्वन्द्व को हिंसा, आंदोलन, सामाजिक अलगाव, विचलन, संघर्ष के माध्यम के रूप में समाज में व्यक्त करने लगता है।

वर्तमान समाज में नवीन मूल्य, प्रतिमान, युवाओं द्वारा विकसित नये संस्कृति आयामों ने युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द्व की जो भयावह स्थिति के जन्म दिया है उससे भारतीय सामाजिक व्यवस्था, भारतीय एकता, अखण्डता, मानवजीवन से जुड़ी अन्य इकाईयों का क्षरण हो रहा है। अन्तर्द्वन्द्व वह स्थिति है, जिसमें व्यक्ति जीवन के उद्देश्यों तथा समाज की परम्परागत मान्यताओं में कोई ताल-मेल नहीं रह जाता है। युवा वर्ग अन्तर्द्वन्द्व के कारण दिग्भ्रमित हुआ है। युवा वर्ग अन्तर्द्वन्द्व को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक आयामों के माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं।

युवा वर्ग में सांस्कृतिक अन्तर्द्वन्द :-

वर्तमान समाज में युवा वर्ग परम्परागत समाज की मान्यताओं, मूल्यों, मानदण्डों, सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन कर एक नई विशिष्ट संस्कृति निर्माण की ओर उन्मुख है। आधुनिक समाज के सामाजिक मूल्यों एवं नवीन युवा संस्कृति ने युवा वर्ग को परम्परागत सांस्कृतिक आयामों से उन्मुक्त कर दिया है जिसके कारण युवा वर्ग मे अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति के कारण निराशा, उद्देश्यहीनता, भ्रष्ट पर्यावरण तथा स्वर्थी नेतृत्व का जन्म हुआ है।
सांस्कृतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में प्राचीन मान्यताओं एंव प्रतिमानों जो रूढ़िवादिता, मिथ्याविश्वास, दहेज-प्रथा, बाल-विवाह, सती-प्रथा, पशु-बलि, विधवा-विवाह निषेध, छूआ-छूत, जाति-प्रथा आदि ऐसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक बुराइयाँ है जो पूर्णतः देश और समाज के विकास में बाधक है। युवावर्ग ने इन मान्यताओं एवं प्रतिमानों को लेकर अन्तर्द्वन्द्व में जीवनयापन कर रहा है। उक्त सामाजिक और सांस्कृतिक बुराइयों की समाप्ति हेतु युवा-अतिसक्रियता की अभिव्यक्ति प्रेममूलक अन्तर्जातीय विवाह तथा विधवा पुनर्विवाह के रूप में हो रही है। कुछ युवक-युवतियों विवाह-विच्छेद, वैश्यावृत्ति, मद्यपान तथा आत्महत्या की ओर अग्रसर हो रहे हैं। वस्तुतः आज का युवा वर्ग नये मूल्यों और प्रतिमानों को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए आतुर एवं व्यग्रता है। यह व्यग्रता सामाजिक रूप से युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति का मूल कारण है।

युवा वर्ग में आर्थिक अन्तर्द्वन्द्व :-

खासतौर पर मध्यम एवं निम्न आय वर्ग के युवक आधुनिक भौतिक सुख का स्वप्न देखते है। इस स्वप्न को पूरा करने के प्रयास ने युवा वर्ग में आर्थिक अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न किया है। वर्तमान समय में कैरियर को लेकर प्रतिस्पर्धा ने युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द्व की भयावह स्थिति को जन्म दिया। हर युवा एक दूसरे से आगे जाने की होड़ ने असफलता के अन्तर्द्वन्द्व से घिर कर वे इतना द्वन्द्वग्रस्त हो जाते है कि उनके व्यवहार विचलनकारी हो जाते हे। वे धनोपार्जन के लिए अनुचित तरीके से आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए अग्रसर होते जाते हैं। असफल होने पर आत्मसंतुलन खो बैठते है और कभी-कभी आत्महत्या तक कर बैठते है।

युवा वर्ग में नवीन आवश्यकताओं का जन्म हुआ है। आर्थिक रूप में नवीन संस्कृति और युवा वर्ग की नवीन आवश्यकताओं में सामंजस्य नहीं होने के कारण युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द्व की भावना का विकास होना अपरिहार्य है।

युवा वर्ग में शैक्षणिक अन्तर्द्वन्द्व :-

वर्तमान समाज में शिक्षा का जो स्वरूप है वह नवीन पद्धति द्वारा निर्धारित एवं संचालित है। एक तरफ कुछ युवा वर्ग शिक्षा की नवीन तकनीक जैसे-ई-लर्निंग, नोटपैड आदि उपकरण का उपयोग कर रहे है वहीं पर कुछ युवा वर्ग इन सब तकनीकों से बहुत पिछड़े हुए है जिससे उनमें इसको लेकर अन्तर्द्वेन्द की स्थिति का जन्म होता है। युवा अन्तर्द्वन्द्व का दृष्टि वृहद रूप से शैक्षणिक क्षेत्र में दृष्टिगोचर होती है। अपने देश भारतवर्ष के अनेक राज्यों के कालेजों, विश्वविद्यालयों एवं उच्च शिक्षण संस्थाओं प्रत्येक सत्र में युवावर्ग में अन्तर्द्वन्द्व के कारण ही धरना, हड़ताल, प्रदर्शन, तोड़-फोड़ आदि विघटनकारी कार्य हो रहे है। इसका ज्वलन्त प्रमाण वह है कि रूढ़की विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में कुछ युवकां ने प्रधानमंत्री के भाषण के समय उग्र प्रदर्शन करते हुए मांग की ’हमें डिग्री नहीं रोटी चाहिए।’


युवा वर्ग में राजनीतिक अन्तर्द्वन्द्व :-

वर्तमान राजनीति युवा वर्ग के लिए कैरियर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। स्कूलों, कालेजों में छात्रोें को प्रवेश एवं नौकरी मिलने में राजनीति का बड़ा योगदान होता है। कुछ युवा वर्ग इसका धड़ल्ले से लाभ उठा रहे हैं तो कुछ युवा वर्ग सभी योग्यता रहते हुए भी पिछे रह जा रहे हैं जिसको लेकर युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द्व की भावना विश्वविद्यालय का बहिष्कार, आत्महत्या, हत्या के रूप में परिलक्षित हो रही है।

राजनेताओं की स्वार्थपरक नीति के कारण युवा वर्ग को सही दिशा में मार्गदर्शन न मिलने के कारण युवा अति सक्रियता के बढ़ावा मिल रहा है। राजनेतागण वृद्ध तथा शक्तिहीन हो जाने के बावजूद भी शासन की कुर्सियों को स्वेच्छा से त्यागना नहीं चाहते न ही नई पीढ़ी के युवा को प्रशासनिक दायित्व सौपना चाहते हैं। जबकि युवावर्ग प्रशासनिक कार्य में सक्रिय रूचि के साथ ही उत्साहपूर्वक भाग लेना चाहते है। जिसके फलस्वरूप युवावर्ग में आक्रोश एवं असंतोष व्याप्त होता है और उनमें अन्तर्द्वन्द्व की भावना को बढ़ावा मिलता है।

युवा वर्ग में मनोवैज्ञानिक अन्तर्द्वन्द्व :-

मनोवैज्ञानिक रूप से युवा वर्ग में अन्तर्द्वन्द्व के पर्याप्त लक्षण देखने को मिलते है। मानसिक असंतोष और भावनात्मक विकृति से घिरे युवा वर्ग में असुरक्षा और निराशा की भावना व्याप्त हो रही है। परिणामस्वरूप युवक-युवतियाँ संवेगात्मक संघर्ष के कारण अनेक मानसिक व्याधियों के शिकार हो रहे है, साथ ही उनमें संवेगात्मक संघर्ष और अस्थिरता की भावना का रूप धारण कर समाज व देश में नवीन परिवर्तन की तरफ उन्मुख हो रही है।


निष्कर्ष-

वर्तमान भारतीय समाज की संस्कृति संक्रमण काल से गुजर रही है। इस स्थिति की जिम्मेदार किसी न किसी रूप में युवा संस्कृति भी है। युवा संस्कृति ने राष्ट्र के युवा वर्ग को सही दिशा दी है, लेकिन कुछ हद तक युवाओं में अन्तर्द्वन्द की भावना को भी विकसित किया है।


संदर्भ सूची :-

1. आहुजा, राम, ’’सामाजिक समस्याएँ’’, रावत पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1984।
2. कोहन, अलबर्ट, ’’क्रिमिनोलॉजी प्रिन्स्टेन’’, हाल, 1962।
3. कार्ल मार्क्स, ’’दास कैपिटल’’, 1848।
4. हर्षकोविट्स, ’’कल्चरल एन्थ्रोपोलॉजी’’।
5. सहगल, नरेन्द्र, जाग्रत युवा शक्ति, पंचजन्य, नई दिल्ली, जनवरी 2011।
6. पाण्डेय, रविप्रकाश, ’’समाजशास्त्रीय सिद्धांत : अधिगम परिप्रेक्ष्य’’, शेखर प्रकाशन, इलाहाबाद, 2004।

द्वारा- सुनील कुमार भास्कर 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मलिन बस्ती में महिलाओं की शैक्षिक स्थिति का अध्ययन ( Status of Women Education in Slums in India)

मलिन बस्ती में महिलाओं की शैक्षिक स्थिति का अध्ययन गन्दी बस्तियों की अवधारणा एक सामजिक सांस्कृतिक, आर्थिक समस्या के रूप में नगरीकरण-औद्योगिकरण की प्रक्रिया का प्रत्यक्ष परिणाम है। शहरों में एक विशिष्ट प्रगतिशील केन्द्र के चारों ओर विशाल जनसंख्या के रूप में गन्दी बस्तियाँ स्थापित होती हैं। ये बस्तियाँ शहरों में अनेकानेक तरह की अपराधिक क्रियाओं एवं अन्य वातावरणीय समस्याओं को उत्पन्न करती है, नगरों में आवास की समस्या आज भी गम्भीर बनी हुई है। उद्योगपति, ठेकेदार व पूँजीपति एवं मकान मालिक व सरकार निम्न वर्ग एवं मध्यम निम्न वर्ग के लोगों की आवास संबंधी समस्याओं को हल करने में असमर्थ रहे हैं। वर्तमान में औद्योगिक केन्द्रों में जनसंख्या की तीव्र वृद्धि हुई है एवं उसी के अनुपात में मकानों का निर्माण न हो पाने के कारण वहाँ अनेको गन्दी बस्तियाँ बस गयी है। विश्व के प्रत्येक प्रमुख नगर में नगर के पाँचवे भाग से लेकर आधे भाग तक की जनसंख्या गन्दी बस्तियों अथवा उसी के समान दशाओं वाले मकानों में रहती है। नगरों की कैंसर के समान इस वृद्धि को विद्वानों ने पत्थर का रेगिस्तान, व्याधिकी नगर, नरक की संक्षिप...

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे (Banaya hai maine ye ghar dhire dhire) By Dr. Ram Darash Mishra

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे, खुले मेरे ख्वावों के पर धीरे-धीरे। किसी को गिराया न खुद को उछाला, कटा जिंदगी का सफर धीरे-धीरे। जहां आप पहुंचे छलांगे लगाकर, वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे। पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी, उठाता गया यूंही सर धीरे-धीरे। न हंस कर, न रोकर किसी ने उड़ेला, पिया खुद ही अपना जहर धीरे-धीरे। गिरा मैं कभी तो अकेले में रोया, गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे। जमीं खेत की साथ लेकर चला था, उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे। मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी, मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे। साभार- साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डॉ. रामदरश मिश्र  (हिन्दुस्तान (फुरसत) 1जुलाई 2018 को प्रकाशित)

कांशीराम जीवन परिचय हिंदी में | KANSHI RAM BIOGRAPHY IN HINDI

कांशीराम जीवन परिचय  KANSHI RAM BIOGRAPHY जन्म : 15 मार्च 1934, रोरापुर, पंजाब मृत्यु : 9 अक्तूबर 2006 व्यवसाय : राजनेता बहुजन समाज को जगाने बाले मान्यबर कांशीराम साहब का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के ख़्वासपुर गांव में एक सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हरीसिंह और मां श्रीमती बिशन कौर थे। उनके दो बड़े भाई और चार बहनें भी थी। बी.एस.सी स्नातक होने के बाद वे डीआरडीओ में बेज्ञानिक पद पर नियुक्त हुए। 1971 में श्री दीनाभाना एवं श्री डी के खापर्डे के सम्पर्क में आये। खापर्डे साहब ने कांशीराम साहब को बाबासाहब द्वारा लिखित पुस्तक "An Annihilation of Caste" (जाति का भेद विच्छेदन) दी। यह पुस्तक साहब ने रात्रि में ही पूरी पढ़ ली।और इस पुस्तक को पढ़ने के बाद सरकारी नोकरी से त्याग पत्र दे दिया। उसी समय उंन्होने अपनी माताजी को पत्र लिखा कि वो अजीबन शादी नही करेंगे। अपना घर परिबार नही बसायेंगे। उनका सारा जीवन समाज की सेवा करने में ही लगेगा। साहब ने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि उनका उनके परिबार से कोई सम्बंध नही रहेगा। बह कोई सम्पत्ति अपने नाम नही बनाय...