जनमाध्यम, भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक अस्मिता ( Media, Indian culture and cultural identity) Janmadhyam, Bharatiya Sanskriti aur Sanskritik Asmita
-डॉ. माला मिश्र
जनमाध्यम, भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक अस्मिता
प्रिंट मीडिया को यदि आधुनिक समाज और नवजागरण की उपज कहा जाता है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सूचना समाज का उत्पाद रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा और इंटरनेट इलेक्ट्रॉनिक माध्यम हैं तथा पत्र, पत्रिकाएँ प्रिंट माध्यम। भारत में इन माध्यमों का विकास अनेक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का परिणाम है। भाषा जनसंचार माध्यमों के लिए एक उपयोगी उपकरण है। किसी भी माध्यम का आकार प्रकार रचने और गढ़ने में भाषा की अहम् भूमिका होती है।
जन माध्यमों की व्यापक पहुँच, लोकप्रियता और जनचरित्र के कारण समाज में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं समाज के राजनीतिक व सांस्कृतिक जीवन के राजनीतिक सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में जनमाध्यमों का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। एक उद्योग के रूप में इनके रूपांतरण व बाजार में मजबूत पकड़ के कारण आर्थिक क्षेत्र में भी जन माध्यमों की सार्थकता बढ़ी रही है। जन माध्यमों की व्यापक पहुँच बहुआयामी भूमिका के कारण इनके नियमन के प्रयास सदैव आवश्यक हैं। आज समाज का संभवतः कोई ऐसा विषय हो जिसमें मीडिया का हस्तक्षेप अथवा प्रभाव न हो। ऐसे में मीडिया की महत्ता स्वयं सिद्ध हो जाती है और तब उसके कंधों पर नैतिकता व औचित्य का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है।
जन संचार माध्यम हमारे सामाजिक जीवन के यूँ तो हर पहलू से संबंध हैं लेकिन राजनीति, व्यापार और मनोरंजन इन तीनों क्षेत्रों में इनका सर्वाधिक प्रभाव है। मीडिया जनमत निर्माण और प्रसार का प्रमुख साधन है। यह स्वयं एक व्यवसाय है। मनोरंजन के क्षेत्र में सबसे बड़ा नाम है क्योंकि सामाजिक जीवन की अनेक छवियाँ और परिभाषाएँ यहीं निर्मित होती है। मीडिया हमारी सामाजिक सांस्कृतिक पहचान की सर्व व्यापक अभिव्यक्ति है। लोकतांत्रिक आदेशों के सजग प्रहरी के रूप में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ‘मीडिया’ राष्ट्रीय विकास को गति प्रदान करने में सक्रिय सहायक सिद्ध हो रहा है। विकासशील देशों में सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने के लिए उसका रचनात्मक उपयोग किया जा सकता है। सामाजिक नियंत्रण के महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भी मीडिया की भूमिका को रेखांकित किया जा सकता है।
मीडिया जब अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ अंतः क्रिया करता है। तब मीडिया के देशों की उत्पत्ति या उपलब्धि होती है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें मीडिया और सामाजिक संरचना के अन्य तत्त्व अनेक स्तरों पर अलग-अलग ढंग से एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। मीडिया प्रचलित प्रभावशाली मूल्यों का समर्थन करता है और स्थापित संस्थाओं को मजबूत बनाता है। साथ ही स्थापित सत्ता और रूढ़ियों की आलोचना करने की अद्भुत क्षमता रखता है। मीडिया के रूपाकार की विविधता व बहुलता के कारण इसकी क्षमताओं का अद्भुत प्रसार हुआ है व सामाजिक रुतबा भी बढ़ा है। मीडिया का अधिकाधिक सामाजीकरण की सशक्त राष्ट्र निर्माण का ठोस आधार बन सकता है और उसकी सांस्कृतिक संबद्धता ही उसे सही दिशा व सक्षम पहचान दिलाने में केन्द्रीय भूमिका निभा सकती है।
आज संस्कृति से जुड़ी समस्याएँ अत्यंत जटिल हैं। इन समस्याओं की परिधि अत्यंत व्यापक है। इनके प्रति बहुमुखी तथा उदार दृष्टिकोण अपनाए बिना इन्हें समझना बहुत कठिन है। इस दृष्टिकोण का विकास तभी संभव है जब संस्कृति के साथ जीवन के अन्य विषयों को भी उससे संबंधित करके अध्ययन किया जाए। प्रायः सांस्कृतिक विषयों के प्रति हमारी सोच विखंडित और इकतरफा है। प्रायः विकास के सांस्कृतिक आयाम की अनदेखी की जाती है। अतः एक ऐसे दृष्टिकोण के निर्माण की ज़रूरत है जो संस्कृति विशेषज्ञों और इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, राजनीति तथा जनमाध्यमों के मध्य विद्यमान अंतराल की खाई को पाट सके।
संस्क्रियते इति संस्कृतिः। अर्थात् जो सुसंस्कृत कर दे, परिष्कृत कर दे, जो शोधन करे, वही ‘संस्कृति’ है। कहने का तात्पर्य है जो जीवन-मूल्य, जो जीवन-शैली जो आचार-विचार और संस्कार जीवन को सही दिशा, उचित विकास और परिपूर्णता का आयाम प्रदान करे, वही संस्कृति है। जीवन में उन्नयन और गति को धरदार बनाने वाले जीवन के प्रेरक और आदर्श मूल्य ही संस्कृति का निर्माण और सशक्तीकरण का निर्माण और सशक्तीकरण करते हैं। समाज में उदात्तता, स्थायित्व और लचीलेपन के साथ-साथ सर्वसमावेशी जीवन स्थितियों के सर्जक तत्त्व ही संस्कृति के औदात्य और सहज प्रवाह के लिए समाज का तानाबाना भी अहम् भूमिका निभाता हो। जैसा समाज होगा, वैसी ही उस समाज की संस्कृति होगी। यदि कोई समाज विकसित है तो उसकी संस्कृति भी समृद्ध होगी और यदि कोई समाज ही पिछड़ा हुआ और अनगढ़, अव्यवस्थित होगा तो उसकी संस्कृति भी अस्थायी, आकारहीन और असंस्कृत होगी।
संस्कृति के वाहक माने जाने वाले समाज के विशेष वर्ग का आज तेजी से क्षरण होता जा रहा है। कला और संस्कृति को युगों तक जीवित रखने वाले अभिजात वर्ग का लगभग पतन हो चुका है। इन कारणों से भी संस्कृति के लिए समस्याएँ बढ़ी हैं। आज इस भूमिका का निर्वाह करने के लिए सरकारी और सामाजिक संस्थाओं को सक्रिय भूमिका निभाने की सख्त ज़रूरत है। सांस्कृतिक गतिविधियों को संरक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है।
गाँवों का देश माने जाने वाले भारत में ग्राम्य समुदाय की अवनति हो रही है। परंपराग समुदाय व बंधन कमज़ोर होते जा रहे हैं। आज कला और संस्कृति को संरक्षण प्रदान करने वाला सामाजिक ढाँचा छिन्न-भिन्न हो गया है। भारत की ग्रामीण और पारंपरिक कला और संस्कृति के विनाश को रोकने के लिए सांस्कृतिक कार्यकत्ताओं और सामाजिक कार्यकत्ताओं को मिलकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण का विकास करना होगा। कला-संस्कृति के अपकर्ष को रोकने के लिए जबावदेही तय करनी होगी। संस्कृति के बदलते सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य के प्रति मौलिक सोच का प्रसार करना होगा। मानवीय परिवेश को भली-भाँति समझे बिना संस्कृति की समस्याओं को दूर नहीं किया जा सकता।
‘संस्कृति के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण लखनऊ स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स एंड सोशियोलॉजी’ की देन है। इसकी प्रस्थापना प्रोफेसर राधाकमल मुखर्जी और प्रोफेसर धूर्जटी प्रसाद मुखर्जी ने की थी। दोनों का मानना था कि अर्थशास्त्र एक सांस्कृतिक विषय है और आर्थिक जीवन से हटकर सांस्कृतिक जीवन के विषय में सोचा भी नहीं जा सकता। उन्होंने भारत के आर्थिक और सांस्कृतिक पुनर्गठन के पारस्परिक संबंध पर भी जोर दिया। इनके अनुसार नैतिकता और मूल्यों से गहरे जुड़ाव के कारण ही समाजशास्त्र और संस्कृति का बंधन अटूट है। यदि समाजशास्त्र संस्कृति की ओर उन्मुख नहीं है तो वह मूल्यहीन होकर दिग्भ्रमित व अमानवीय हो जाएगा। संस्कृति को विशेषता और तत्त्व प्रदान करने वाली सामाजिक प्रक्रियाओं कार्यकर्त्ता समाजशास्त्र पर निर्भर होते हैं। आर्थिक विकास संस्कृति का एक माध्यम है और दोनों में संवाद अनिवार्य है।
संस्कृति और संचार के मध्य का संबंध भी स्वस्थ समाज के निर्माण में बहुत अहम् है। ज्ञान का कभी भी जीवन से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जीवन का चरित्र सदैव सामाजिक होने में है। ज्ञानार्जन की प्रक्रिया सामाजिक जीवन की आवश्यकताओं से संबंधित होती है। औपनिवेशिक भारत में भारतीयों की सबसे बड़ी आवश्यकता थी उनकी भारतीयता और आत्मसम्मान। औपनिवेशिक वातावरण में उसका प्रत्यक्षतः क्षरण हो रहा था जिससे पूरी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के लिए अस्मिता-जन्य संकट उत्पन्न हो रहा था। आनंद के कुमार स्वामी के अनुसार “साम्राज्यवाद के अधीन राष्ट्रीयता विलुप्त हो जाती है। यह पराधीनता सिर्फ राजनीतिक या आर्थिक नहीं होती बल्कि इसमें नैतिक और बौद्धिक स्तर पर भी लोग पराचीन हो जाते हैं। .... मानव संस्कृति के विकास में हर देश से योगदान की अपेक्षा करना जगत का अधिकार है। लेकिन यदि कोई देश अपनी वैयक्तिकता और विशेषता विकसित करने के लिए स्वतंत्र नहीं है तो वह मानव संस्कृति में कोई योगदान नहीं कर सकता।
किसी भी देश के सर्वांगीण विकास के लिए उसका सांस्कृतिक विकास बहुत ज़रूरी है। इसीलिए औपनिवेशिक शासन के खिलाफ सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों के द्वारा बिगुल बजाया गया। सांस्कृतिक स्तर पर भारतीयों को आत्मनिरीक्षण और आत्मदर्शन के बीजवपन द्वारा सभ्य बनने के संस्कार दिये गये। सांस्कृतिक पुनरुत्थान व नवजागरण की लहर दौड़ गई। उसने औपनिवेशिक विचारों और मूल्यों के विरोध में चेतना की दीवार खड़ी की। इस संदर्भ में गाँधी जी की सकारात्मक भूमिका रही। नेहरू जी ने उनके बारे में लिखा- “उनका आगमन ताजी हवा के एक झोंके की तरह हुआ। इस झोंके ने हमें स्फूर्ति प्रदान की। इस सुवासित वायु ने हमारे जीवन में एक नए जीवन का संचार किया।”
सांस्कृतिक और राजनीतिक शक्तियों का मेल भारत की विशिष्ट परंपरा रही है। आज जब भारत की राष्ट्रीय पहचान पुनः संकट में है। ऐसे में अपनी सांस्कृतिक विरासत को पुनः संयोजित करना हमारी मूल आवश्यकता है। यद्यपि आज राजनीतिक उपनिवेशवाद मौजूद नहीं है लेकिन आधुनिक युग में एक नव उपनिवेशवादी संस्कृति का उदय हो रहा है और उससे निपटने के लिए सांस्कृतिक औजारों का सशक्त व धारदार होना नितांत ज़रूरी है।
आज संचार क्रांति के द्वारा भी भारतीय संस्कृति के संरक्षण की खासी ज़रूरत है। प्रोफेसर यशपाल ने बार-बार इसकी आवश्यकता पर बल दिया है। पश्चिमी देश संचार क्रांति का इस्तेमाल अविकसित देशों और उनकी विशाल जनता के दमन और उन्हें गुलाम बनाने के लिए कर रहे है। विकासशील देश सांस्कृतिक अशक्तता के शिकार हो रहे हैं। समृद्ध वर्ग उनसे इस अशक्तता से उबरने के अवसर तक छीन रहा है। दीगर बात यह है कि संचार क्रांति हमें उन्नति के विशाल अवसर मुहैया कराती है लेकिन साथ ही हमारे लिए बहुत बड़ा खतरा भी लाती है। विकसित देशों ने जिन लक्ष्यों को प्राप्त करने में सैकड़ों वर्ष लगाए उन्हें अविकसित देश संचार क्रांति व संचार माध्यमों के द्वारा कुछ दशकों में ही प्राप्त कर सकते हैं। इस दृष्टि से संचार-माध्यम उनके लिए जीवनदाता व वरदान ही सिद्ध हो रहे हैं। भारत जैसे देश में गरीबी व पिछड़ेपन के खिलाफ संघर्ष में संचार माध्यम एक बड़ा व कारगार हथियार बन सकता है। लघु अवधि में ही इनके द्वारा निरक्षरता, दरिद्रता या मानसिक सामाजिक विकारों को नियंत्रित किया जा सकता है। समाजवादी नेता लेनिन में संचार क्रांति का आकलन विकास व परिवर्तन के एक प्रमुख कारक के रूप में किया है।
सांस्कृतिक पिछड़ापन किसी देश के पिछड़ेपन का मूल कारण होता है। लेनिन ने कहा था कि राजनीतिक या सैन्य समस्या की तरह सांस्कृतिक समस्या का तत्काल समाधान संभव नहीं हैं। सांस्कृतिक पिछड़ेपन के खिलाफ संघर्ष में हमें अधिकतम धैर्य, अध्वसाय और व्यवस्था की ज़रूरत होगी। (वी.आई. लेनिन, 1966ः 78-79) सांस्कृतिक और आर्थिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई में लेनिन ने आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी को सर्वोच्च महत्ता दी थी। उन्होंने ‘रेडियो’ का स्वागत ‘बिना’ पेपर वाले न्यूज़पेपर’ के रूप में किया।
नेहरू ने भारत के प्रत्येक गाँव में एक विद्यालय, एक को ऑपरेटिव और एक पंचायत की अवधारणा दी। साराभाई ने इन सबके साथ हर गाँव में एक टेलीविजन भी मुहैया कराने का विचार दिया। उनके अनुसार सामुदायिक टेलीविजन से गाँव व गरीब लोगों का खासा विकास हो सकता है। यद्यपि मात्र रेडियो, टेलीविजन से सांस्कृतिक लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। किसी भी समाज या राष्ट्र के विकास के लिए जनता के साथ निरंतर संवाद बहुत ज़रूरी है। गाँधीजी का मानना था कि लोगों के साथ मिलकर, उनके साथ रहकर, उनके साथ काम कर, उनसे बात करके और उनके साथ संघर्ष करके ही सांस्कृतिक विनिमय को सशक्तता प्रदान की जा सकती है।
यदि आधुनिक संचार माध्यम समाज के विशिष्ट वर्ग अर्थात् विचारक वर्ग और आम लोगों के बीच संवाद स्थापित करने में मदद करते हैं तो इससे लोगों की सृजनात्मक क्षमता बढ़ेगी लेकिन यदि अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी को इस संवाद का विकल्प बनाया जाता है तो इससे जनता की सर्जनात्मक क्षमता का दमन होगा। यदि संचार माध्यम जनता के बीच तथा शासक वर्ग और आम जनता के बीच पारंपरिक संवाद व्यवस्था को नष्ट करते हैं तो इससे लोगों की ऊर्जा का सदुपयोग नहीं हो सकेगा। संकीर्ण सोच के आधार पर सांस्कृतिक उन्नयन का लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद, सांप्रदायिकता, आडंबर, सामाजिक कुरीतियाँ, पक्षपात, असंतुलित वितरण संस्कृति का क्षरण व अधोपतन करती हैं।
कला और संस्कृति के प्रति राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास करने के लिए भारत की अति समृद्ध लोककला व संस्कृतियों का समन्वय बहुत ज़रूरी है। इन्हें भली-भाँति समझकर ‘नई सांस्कृतिक धारा’ में शामिल किया जाना चाहिए। लोक परंपराओं में कलाकार और समुदाय दोनों अभिन्न होते हैं। लोक कला में किसी समुदाय की रचनात्मक गतिविधियाँ शामिल होती हैं। लोक कला कलाकार व समुदाय के बीच संचार का रचनात्मक सहभागी प्रारूप तैयार करती है। लोककला समाज की विरोधी शक्तियों के विरुद्ध सामाजिक अस्तित्त्व के संघर्ष में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
लोक-परंपरा पौराणिक कथाओं मिथकों, कल्पनाओं, संकेतों व प्रतीकों के माध्यम से संस्कृति को ऊर्जावान बनाती है। वैविध्य रूप में लोक व शास्त्र की परंपराओं का सुंदर मेल वहाँ दिखाई देता है। साहित्य से संबद्धता व साहित्य का पोषण भी लोक व परंपरा का अटूट हिस्सा है। रामायण, महाभारत तथा अन्य अनेक महाकाव्यों व रचनाओं में उल्लेखनीय चरित्रों व कथाओं के द्वारा भारतीय संस्कृति व मूल्यों का संरक्षण होता रहा है। पारंपरिक संस्कृति व वर्तमान संस्कृति व वर्तमान संस्कृति के अंतराल को पाटना भी सांस्कृतिक संरक्षण का मुख्य कारक है। दोनों के बीच की संवादहीनता व संबंधहीनता की दरार को दरकिनार करना भी बहुत ज़रूरी है। आम व विशिष्ट वर्ग के मध्य विद्यमान दूरी को कम करना भी बहुत अहं सांस्कृतिक चुनौती है। भारत की मौजूदा पीढ़ी के समक्ष संचार प्रौद्योगिकी के समुचित इस्तेमाल की चुनौती है जिससे भौतिक मूल्य उत्पादकों व सांस्कृतिक मूल्य सर्जकों के बीच सुदृढ़ संबंध निर्मित है।
पुराने संचार माध्यम यांत्रिक थे लेकिन आधुनिक संचार माध्यम पूरी तरह इलैक्ट्रॉनिक हैं। आधुनिक संचार माध्यमों की अपनी खासियत है। ये संचार व्यवस्था वर्ग उन्मुखी न बनाकर जनोन्मुख बना सकते हैं। एकरूपता की जगह विविधता को, संकुचन की जगह प्रसार को, बहिष्कार की जगह सहभागिता को तथा ध्रुवीकरण की जगह एकीकरण को प्रोत्साहित करते हैं।
नई इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी की असीम सांस्कृतिक क्षमताओं को अच्छी तरह समझने के लिए मैकलुहान के विचारों को जानना बहुत ज़रूरी है। मैकलुहान ने लिखा है- विशिष्ट प्रौद्योगिकी सामुदायिकता को नष्ट करती है, गेर विशिष्ट विद्युत प्रौद्योगिकी सामुदायिकता को पुनर्जीवित करती है। संपन्न देशों के समूह समाज (डें ैवबपमजल) और उपभोक्तावाद ने ही अभी तक संचार क्रांति का लाभ उठाया है। सी.राइट मिल्स के मतानुसार जनसमाज ने संचार को स्वार्थ साधन और जनता तथा सामाजिक चेतना को विद्रूप बनाने का साधन बना लिया है। उपभोक्तावाद ने संचार का इस्तेमाल लोगों की भौतिक आवश्यकताएँ तथा उनकी विषय-वासना को बढ़ाने का काम किया है।
उद्योगीकरण व शहरीकरण ने आम लोगों की संस्कृति को नष्ट करने का कार्य किया है। सामाजिक ढाँचे को बुरी तरह ध्वस्त किया है। संचार क्रांति में लोक और कृषक कला तथा संस्कृति को पुनर्जीवित करने और उन्हें बढ़ावा देने की पूर्ण क्षमता है। इसके बावजूद यह उनका नाश कर रही है। आधुनिक संचार व्यवस्था में शहरी व ग्रामीण भारत, केंद्र और प्रांत बुद्धिजीवी वर्ग व आम वर्ग के बीच की खाई को पाटने की क्षमता है। फिर भी वह छद्म आधुनिकता व राष्ट्रीय पहचान के क्षरण व वर्ग भेद को बढ़ावा दे रही है। आनंद कुमार स्वामी ने सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए जनता से सीखने व तादात्म्य का संदेश दिया था। उनके मतानुसार सांस्कृतिक विरासत को परिदृश्य में लाए बिना वास्तविक राष्ट्रवाद का विकास नहीं किया जा सकता। देश की सांस्कृतिक परंपराओं से दूर रहकर भारतीयता की कल्पना तक नहीं की जा सकती। राष्ट्र निर्माण व सांस्कृतिक पहचान में लोक-संगीत का भी विशेष महत्त्व है। जो जन-जन के मन को जोड़ने में सफल होता है। सामाजिक व सांस्कृतिक धरोहरों का अद्भुत वाहक होता हैं राष्ट्रीयता की पहचान का सफल गायक होता है।
सच्चे अर्थों में भारत के सुंदर भविष्य के निर्माण के लिए ‘सत्य, शिवं, सुंदरम्’ की अवधारणा को चरितार्थ करना होगा। नए भारत की सांस्कृतिक रूपरेखा बनाने के लिए देशवासियों को सांस्कृतिक इतिहास के सकारात्मक पहलुओं से जोड़ते हुए नकारात्मक पक्षों के प्रति सावधान करते हुए योजनाकारों व जन-समाज के मध्य संवाद को अधिकाधिक बढ़ाना होगा।
अतीत का गौरव गान, देशभक्ति, परंपराओं का सम्मान, राष्ट्रीयता में दृढ़ आस्था महापुरुषों का गौरव गान, राष्ट्र के लिए समर्पण व त्याग की भावना, उदार दृष्टिकोण, सर्वसमावेशी प्रवृत्ति, समतावादी दृष्टि, निष्पक्षता, वैविध्य में एकता, सामाजिक विकारों व जड़ताओं का परित्याग साहित्यिक उर्वरता, लोक कला की सशक्तता जनोन्मुखता, मानवीयता, जीवनादर्शों व वैज्ञानिक के विचारों में तालमेल, सहिष्णुता, ललित कलाओं को प्रश्रय, अंतर्दृष्टि तथा सहजता और सरलता के साथ-साथ जीवंतता के संश्लेष के साथ आशावादी दृष्टिकोण से ही सांस्कृतिक समृद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। यह विचारना भी ज़रूरी है-
”हम कौन थे क्या हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें बैठकर ये समस्याएँ सभी।“
सहायक पुस्तक सूचीः-
1. लोकतंत्र के विकल्प के खोज की पहली शर्त-कैलाशचन्द्र पंत - चिंतन सृजन (त्रैमासिक पत्रिका) आस्था भारती, दिल्ली, अप्रैल-जून 2013
2. राष्ट्रवाद का अयोध्याकांड- मधुकीश्वर, आशीष नंदी
3. आजादी के बाद भारत-विपिन चंद्र
4. इंटरनल सिक्योरिटी इश्यूज़ इन इंडिया . ैचमबपंस त्ममितमदबम जव छंजपवद ठनपसकपदह दृ प्देजपजनजम वि क्ममिदबम ेजनकल रू ।द ।दंसलेपे ;डवदवहतंचीद्ध
5ण् ज्ीम ळमदकमत ंदक जीम डमकपं त्मंकमत दृ ज्ञमेंदमल त्वनजसमकहम च्नइसपबंजपवद
6ण् डमकपं ं छंजपवदं ठनपसकपदहए ठमतहींउ ठववोए छमू ल्वता च्नइसपबंजपवदण्
7. पत्रकार और पत्रकारिता प्रशिक्षण, अरविन्द मोहन, सामयिक प्रकाशन, 2003
8. नए जन संचार माध्यम और हिंदी, सुधीश पचौरी एवं अचला शर्मा (सं.), राजकमल प्रकाशन 2002
9. मीडिया लेखनः सिद्धांत और व्यवहार, चंदप्रकाश मिश्र, संजय प्रकाशन, 2003
10. जनसंचार माध्यमों का सामाजिक चरित्र, जवरीमल्ल पारख, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूर्स, 1996
11. माध्यम सामाज्यवाद, जगदीश्वर चतुर्वेदी, अनामिका पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूटर, 2002
12. टेलीविजन संस्कृति और राजनीति, जगदीश्वर चतुर्वेदी, अनामिका पाब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूटर, 2004
13. भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया (मीडिया सिद्धांतकार-1), जगदीश्वर चतुर्वेदी एवं सुधा सिंह, अनामिका पब्लिकेशन एंड डिस्ट्राब्यूटर, 2008
14. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सिनेमा, रामप्रकाश द्विवेदी प्रासंगिक पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2013
15. भूमंडलीकरण बाज़ार और मीडिया, जय नारायण बुधवार, प्रमिला बुधवार,
16. हिंदी पत्रकारिता : कल और कल, रसा मल्होत्रा, संजय प्रकाशन, 2010
17. भव्य भारत-आचार्य चन्द्र, डॉ. माला मिश्र, संजय प्रकाशन, 2010
18. लोक प्रशासन - डॉ. श्रीराम माहेश्वरी डॉ. अमरेश्वर अवस्थी
19. आधुनिक राजनीतिक विचारों का इतिहास
20. शैक्षिक प्रशासन एवं प्रबंध- सुरेन्द्र कुमार साहु, नेहा पब्लिकेशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2010 नयी दिल्ली
21. राजनीतिक सिद्धांत और शासन- कृष्णकान्त मिश्र, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2001
22. प्रशासन एवं लोकनीतिः - मनोज सिन्हा, ओरियंट ब्लैकस्वान, दिल्ली-2010
23. भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद - बिपिन चंद्र, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 1996, दिल्ली
24. संस्कृति विकास और संचार क्रांति-पूरचनंद जोशी, ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली, 2001
25. भारतीय संस्कृति - डॉ. किरण टण्डन, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1994
26. भारतीय संस्कृति - प्रदीप कुमार जैन राहुल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1990
27. भारतीय संस्कृति के सामाजिक सोपान, शरदेन्दु - शब्दकार दिल्ली, 1995
**एसोशिएट प्रोफेसर, हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग, अदिति महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय).
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