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डॉ. अम्बेडकर और आधुनिक सामाजिक न्याय (Dr. Ambedkar and Modern Social Justice) Dr. Ambedkar aur Adhunik Samajik Nyay

डॉ. अम्बेडकर और आधुनिक सामाजिक न्याय 

Dr. Ambedkar  and Modern Social Justice




जीवन परिचय-


डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर जी का जन्म 14 अपै्रल, 1891 को मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट महू छावनी में एक महार जाति के परिवार में हुआ। उनका पैतृक गाँव रत्नागिरी जिले की मंडणगढ़ तहसील के अंतर्गत आम्ब्रावेडे था। उनके बचपन का नाम भीमराव एकपाल उर्फ ‘भीमा’ था। वे पिता का रामजी राव मालोजी सकपाल और माता भीमाबाई मुरबादकर की 14वीं (11 लड़कियों व 3 लड़कों में ) व अंतिम संतान थे। उस समय पूर्व के 13 बच्चों में से केवल चार बच्चे बलराम, आनंदराव, मंजुला व तुलासा ही जीवित थे। शेष बच्चों की अकाल मृत्यु हो चुकी थी। समाज जाति-पाति, ऊँच-नीच और छूत-अछूत जैसी भयंकर कुरीतियों के चक्रव्युह में फंसा हुआ था, जिसके चलते महार जाति को अछूत समझा जाता था और उनसे घृणा की जाती थी। उस समय अंग्रेज निम्न वर्ण की जातियों से नौजवानों को फौज में भर्ती कर रहे थे। आम्बेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और भीमराव के पिता रामजी आम्बेडकर ब्रिटिश फौज में सूबेदार थे और कुछ समय तक एक फौजी स्कूल में अध्यापक भी रहे। उनके पिता जी कबीर पंथ के बहुत बड़े अनुयायी थे। उनकीं माता श्रीमती भीमाबाई भी धार्मिक प्रवृति की घरेलू महिला थीं। 20 नवम्बर, 1896 में मात्र 5 वर्ष की आयु में ही माता का साया उनके सिर से उठ गया था। इसके बाद उनकी बुआ मीरा ने चारों बहन-भाईयों की देखभाल की। उनके पिता ने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी। वह शिक्षा का महत्त्व समझते थे और भीमराव की पढ़ाई लिखाई पर उन्होंने बहुत ध्यान दिया। 


शिक्षा- 


डॉ. आम्बेडकर को अछूत समझी जाने वाली जाति में जन्म लेने के कारण अपने स्कूली जीवन में अनेक अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा। भीमराव ने प्रारंभिक शिक्षा सतारा की प्राथमिक पाठशाला में हासिल की। 7 नवम्बर, 1900 को उनका दाखिला सतारा के गवर्नमेंट वर्नाक्यूलर हाईस्कूल में करवाया गया। वे बचपन से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के थे और हर परीक्षा में अव्वल स्थान पर रहते थे। इसके बावजूद सामाजिक कुरीतियों के चलते उन्हें अछूत के नाम पर प्रतिदिन अनेक असहनीय अपमानों और यातनाओं का सामना करना पड़ता था। इन सब स्थितियों का धैर्य और वीरता से सामना करते हुए उन्होंने स्कूली शिक्षा समाप्त की। फिर कॉलेज की पढ़ाई शुरू हुई। इस बीच पिता का हाथ तंग हुआ। खर्चे की कमी हुई। एक मित्र उन्हें बड़ौदा के शासक गायकवाड़ के यहाँ ले गए। गायकवाड़ ने उनके लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था कर दी और आम्बेडकर ने अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी की। 1907 में मैट्रिकुलेशन पास करने के बाद बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से वे एलिफिन्सटन कॉलेज से 1912 में ग्रेजुएट हुए। 2 फरवरी, 1913 को पिता के देहान्त के बाद भीमराव अम्बेडकर को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पारिवारिक दायित्व के निर्वहन के लिए नौकरी करने को विवश होना पड़ा। लेकिन, थोड़े समय बाद ही उन्हें बड़ौदा के महाराजा की कृपा पुनः प्राप्त हुई और उन्हें उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश जाने का सौभाग्य मिला। वे एस.एस. अकोना जहाज से अमेरिका के लिए रवाना हुए और 23 जुलाई, 1913 को न्यूयार्क जा पहुंचे। वहां जाकर उन्हांने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। 1913 और 15 के बीच जब आम्बेडकर कोलंबिया विश्वविद्यालय में एम.ए. कर रहे थे, तब एक प्रश्न पत्र के बदले उन्होंने प्राचीन भारतीय व्यापार पर एक शोध प्रबन्ध लिखा था। इस में उन्होंने अन्य देशों से भारत के व्यापारिक सम्बन्धों पर विचार किया है। इन व्यापारिक सम्बन्धों की विवेचना 12 खण्ड में प्रकाशित है। उन्होंने वर्ष 1915 में एम.ए. की डिग्री और 10 जून, 1916 को अर्थशास्त्र में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. पूरी की। हालांकि नियमानुसार उनका शोध धनाभाव के चलते आठ वर्ष बाद प्रकाशित होने के कारण पी.एच.डी डिग्री वर्ष 1924 में ही हासिल हो सकी। वे इसी वर्ष वास्तव में डॉ. भीमराव अम्बेडकर बने। उन्होंने वर्ष 1916 में प्रख्यात ‘लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिकल एण्ड पॉलीटिकल साइंस’ में दाखिला ले लिया। अचानक छात्रवृति रोक दिए जाने से उन्हें पढ़ाई के बीच में ही 21 अगस्त, 1917 को स्वदेश लौटने को विवश होना पड़ा। भारत लौटकर उन्होंने पूर्व में हस्ताक्षरित अनुबंध के अनुसार महाराजा बड़ौदा की सेना में सैन्य सचिव के पद पर नौकरी करनी पड़ी। फिर वे बड़ौदा से बम्बई आ गए। कुछ दिनों तक वे सिडेनहैम कॉलेज, बम्बई में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी रहे। डिप्रेस्ड क्लासेज कांफरेंस से भी जुड़े और सक्रिय राजनीति में भागीदारी शुरू की। कुछ समय बाद उन्होंने लंदन जाकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की। इस तरह विपरीत परिस्थिति में पैदा होने के बावजूद अपनी लगन और कर्मठता से उन्होंने एम.ए., पी एच. डी., एम. एस. सी., बार-एट-लॉ की डिग्रियाँ प्राप्त की। इस तरह से वे अपने युग के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राजनेता एवं विचारक थे। उनको आधुनिक पश्चिमी समाजों की संरचना की माज-विज्ञान, अर्थशास्त्र एवं कानूनी दृष्टि से व्यवस्थित ज्ञान था। अछूतों के जीवन से उन्हें गहरी सहानुभूति थी। उनके साथ जो भेदभाव बरता जाता था, उसे दूर करने के लिए उन्होंने आन्दोलन किया और उन्हें संगठित किया।

डॉ. अम्बेडकर का समाज दर्शन-


डॉ. अम्बेडकर का भारतीय समाज की संरचना एवं पुनर्निर्माण में महान योगदान है, इनका विचार था कि मानव जीवन निरर्थक नहीं अर्थपूर्ण है। वे प्रो. ड्यूम्बी के मानवतावादी एवं उदारवादी विचारों से बहुत अधिक प्रभावित थे, जिसमें यह कहा जाता था कि हमें अपनी पुरानी संस्कृति में से केवल उन्हीं बातों का चयन करना चाहिए जो उपयोगी हो। डॉ. अम्बेडकर ने ड्यूम्बी से उपयोगितावादी व्यवहारिकता का सिद्धान्त सीखा तथा उनकी गतिशील पद्धति एवं सिद्धान्तों का अनुकरण भी किया। जिसका सीधा सम्बन्ध नैतिकता, मनुष्य एवं समाज से था। इनका दर्शन कोरी कल्पना से दूर तथा वास्तविक जीवन से सम्बन्धित था। वे स्वर्ग-नरक जैसी पारलौकिकता में विश्वास नहीं करते थे। इनका मानना था कि प्रत्येक समाज को एक व्यवहारिक नैतिकता व सामाजिक धर्म का पालन करना चाहिए तथा इसका मूल्यांकन आधुनिकता एवं उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए। बाबा साहेब कोई धार्मिक नेता या महापुरुष नहीं थे फिर भी वे मानते थे कि धर्म व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति धर्म के लिए नहीं। धर्म, नैतिकता, विवेक एवं मानवीय सम्बन्धों पर आधारित होना चाहिए। ऐसा धर्म ही समाज को स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व के आदर्शों की तरफ ले जाता है। 

डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक न्याय की अवधारणा-


सामाजिक न्याय की अवधारणा एक बहुत ही व्यापक अवधारणा है। इसमें एक व्यक्ति के नागरिक अधिकारों के साथ ही सामाजिक (भारत के परिप्रक्ष्य में जाति एवं अल्पसंख्यक) समानता के अर्थ भी निहित हैं। भारत में सामाजिक न्याय के प्रेरक दलितों के मसीहा एवं संविधान के प्रमुख शिल्पकार डॉ0 भीमराव अम्बेडकर 20वीं सदी के उन आधुनिक विचारकों में से एक हैं जिन्होंने विश्व समाज को एक नई दिशा दी। अम्बेडकर ने भारतीय समाज जीवन का गहन अध्ययन किया। भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण, धर्म, जाती के आधार पर छुआछूत, असमानता एवं शोषण की स्थिति के खिलाफ सामाजिक न्याय की अवधारणा को संविधान की मूल पृष्ठभूमि में स्थान दिलाया। सामाजिक न्याय की अवधारणा का मुख्य अभिप्राय यह है कि नागरिक-नागरिक के बीच सामाजिक स्थिति में कोई भेद न हो। भारत के प्रत्येक नागरिक को विकास के समान अवसर उपलब्ध हों। सामाजिक न्याय का अंतिम लक्ष्य, समाज के कमजोर एवं बहिष्कृत वर्ग को भी विकास की मुख्य धारा से जोड़ना, जिससे विकास में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो। जैसे-विकलांग, अनाथ, दलित, अल्पसंख्यक, गरीब, महिलाएं अपने आपको असुरक्षित न महसूस करे। संसार की सभी आधुनिक न्याय प्रणाली प्राकृतिक न्याय की कसौटी पर खरा उतरने की चेष्टा करती है, जिनका अंतिम लक्ष्य समाज के सबसे कमजोर तबके का हित सुरक्षित करना है। यदि वर्तमान भारतीय न्याय प्रणाली पर गौर करे तो यह कई विभागों में बांटी गई है, जैसे फौजदारी, दीवानी, कुटुम्ब, उपभोक्ता आदि आदि। लेकिन इन सभी का किसी न किसी रूप में सामाजिक न्याय से सरोकार होता है। अर्थात यह वंचित वर्ग के सशक्तिकरण की अवधारणा है। यह सामाजिक लाभो के वितरण के माध्यम से समाज में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, समानता स्थापित करना चाहती है। इस प्रकार यह समानता का दर्शन है। सामाजिक न्याय की अवधारणा के मुख्य आधार स्तम्भ ये हैं-


1. धार्मिक भेदभाव को समाप्त करना 2. जातीय ऊंच-नीच की भावना को मिटाना3. लैंगिक असमानता को खत्म करना4. क्षेत्रीयता के भेदभाव को खत्म करना


डॉ. अंबेडकर के सामाजिक न्याय के सिद्धांत को समझने से पहले परंपरागत सामाजिक न्याय व्यवस्था को जानना आवश्यक है। भारत की सामाजिक न्याय प्रणाली में मनुस्मृति के नियम कड़ाई से लागू होते हैं। आज भी खाप पंचायतों द्वारा दिये जाने वाले निर्णयों का आधार मनुस्मृति ही है। खाप पंचायत ही क्यों समस्त जातीय पंचायतें अपने सामाजिक फैसलों में मनु के नियमों का पालन करते देखी जाती है। उदाहरण देखें- पुत्री को पिता की सम्पत्ति में अधिकार का फैसला जाति पंचायतों के अनुसार कोई सोचनीय विषय ही नहीं है। अर्थात पिता की सम्पत्ति  में केवल पुत्रों का अधिकार होता है। प्रश्न ये है कि ऐसे फैसले जिनको हमारा भारतीय संविधान दूसरे नजरिये से देखता है का आइडिया इन पंचायतों को कहां से प्राप्त होता है, दरअसल ये आइडिया इन्हें मनुस्मृति से मिलता है जो भारतीय जनमानस में समाया हुआ है। वास्तव में भारत में परंपरागत सामाजिक न्याय प्रणाली निम्न तीन बिंदुओं पर आधारित होती है।


1. परम्परागत नियमों/मूल्यों के प्रति अंधविश्वास2. जाति भेद (जातिय श्रेष्ठता एवं नीचता)3. लैंगिक भेद (महिलाओं का मानवीय अधिकार से बेदखल करना)


इस प्रणाली पर विश्वास या श्रद्धा का मुख्य आधार एवं वाहक धार्मिक ग्रंथ हैं। जो इन विश्वासों की पुष्टि करने के साथ ही साथ स्थापित एवं जनमानस तक प्रमाणित भी करते हैं। इन ग्रंथों पर प्रश्न न उठे इसलिए इन्हें अपौरुषेय (ईश्वर द्वारा लिखित) कहा गया। ऐसा करने का एकमात्र लक्ष्य यही था, किसी खास जाति विशेष, लिंग विशेष को बिना मेहनत सुख-सुविधा मुहैया कराया जा सके। गौरतलब है कि ऐसा विश्व के अन्य समुदाय में भी ऐसा होता था। ये ग्रन्थ ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ और अन्य को मुक्त गुलाम बनाने की ओर प्रेरित करते हैं। गौरतलब है कि भारत में जातीय श्रेष्ठता का आधार जन्म है न कि कर्म। (मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक क्रमांक 129 देखें)
किसी भी शूद्र को संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए चाहे वह इसके लिए कितना भी समर्थ क्यों न हो, क्योंकि जो शूद्र धन का संग्रह कर लेता है, वह ब्राह्मणों को कष्ट देता है। (मनुस्मृति अध्याय 1 श्लोक 87 से 91 देखें)
ब्राह्मणों के लिए उसके अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ करने दूसरों से यज्ञ कराने दान लेने एवं देने का आदेश दिया। लोगों कि रक्षा करने, दान देने यज्ञ करने पढने एवं वासनामयी वस्तुओं से उदासीन रहने का आदेश क्षत्रियों को दिया। मवेशी पालन, दान देने यज्ञ कराने पढने व्यापार करने धन उधार देने तथा खेती का काम करने की जिम्मेदारी वेश्यों की दी गई। भगवान ने शूद्र को एक कार्य दिया है उन पूर्व लिखित वर्गों की बिना दुर्भाव से सेवा करना।

भारत समाज को अग्रेजी उपनिवेश से आजादी मिलने के बाद सामाजिक असमानता और संघर्ष को दूर करने हेत,ु आधुनिक भारत में दो सामाजिक न्याय की अवधारणाएं उभर कर सामने आयी-

1. गांधीवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा2. अंबेडकरवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा


1. गांधीवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा- महात्मा गांधी अपने आपको प्रगतिशील एवं आधुनिक मानते थे। वे आधुनिक न्याय प्रणाली को तो मानते थे लेकिन जातीय और धार्मिक ऊंच-नीच को भी मान्यता देते थे। वे ये तो मानते थे कि सभी जातियों को आपस में मिलने-बैठने का अधिकार होना चाहिए, छुआछूत की भावना का खात्मा होना चाहिए, लेकिन वे जाति आधारित कार्य प्रणाली का समर्थन करते थे। इस परिप्रेक्ष्य में वे कहते कि यदि तुम अपनी जाति में निर्धारित जातिगत गंदे कामों को मन लगाकर करते हो तो तुम्हारा अगला जन्म ऊंची जाति में होगा। इस प्रकार वे पूर्नजन्म  में विश्वास करते थे। एक खास वर्ग के नेता गांधी के इस सिद्धांत को मानते हैं। अब इस सिद्धांत को दक्षिणपंथी विचारधारा के नाम से भी जाना जाता है।
2. अंबेडकरवादी सामाजिक न्याय की अवधारणा- डॉ. अंबेडकर का सामाजिक न्याय का सिद्धांत प्राकृतिक न्याय के अवधारणा के ज्यादा नजदीक है। डॉ. अंबेडकर गांधीवादी न्याय के सिद्धांत को एक छल कहते थे। वे मानते हैं कि जिस सामाजिक न्याय के सिद्धांत में जातिगत ऊंच-नीच, धार्मिक कट्टरता, लिंग भेद, पूर्वजन्म की कल्पना को मान्यता दी जाती है। वह सामाजिक न्याय हो ही नहीं समता। वे इसे ब्राह्मणवादी न्याय का सिद्धांत कहते हैं क्योंकि इस सिद्धांत में किसी जाति विशेष, लिंग विशेष का हित सुरक्षित है। इसलिए डॉ. अंबेडकर जिस सामाजिक न्याय की अवधारणा का प्रतिपादन करते है वे नस्ल भेद, लिंग भेद और क्षेत्रीयता के भेद से मुक्त है। इस अवधारणा में समाज के कमजोर वर्ग के साथ न केवल न्याय हो, बल्कि उनके अधिकार और हित सुरक्षित हो। संविधान निर्माण में उनके इस सिद्धांत की भूमिका स्पष्ट देखी जा सकती है। डॉ. अंबेडकर का सामाजिक न्याय सिद्धांत निम्न सामाजिक तथ्यों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रहार करता है-


1. जाति आधारित श्रम विभाजन के खिलाफ 2. सामाजिक बहिष्कार 3. समाज में पुरुष सत्ता को खत्म करने के लिए4. भूमि या संपत्तियों का असमान वितरण के खिलाफ5. महिलाओं को पिता एवं पति की संपत्ति में अधिकार


भारतीय संविधान इस मामले में सर्वोच्च और उत्कृष्ठ है। इसमें सामाजिक न्याय की पूर्ति में लिए इन बाधाओं को दूर करने का प्रयास किया गया है। सामाजिक न्याय पाने की दिशा में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सहित तमाम केंद्रों के प्रयास कहीं न कहीं गलत कार्यान्वयन और असंतुलन के कारण फलीभूत नहीं हो पा रहे हैं। जरूरत और समय की मांग है कि उचित और संतुलित नीतियों-व्यवहारों को लागू किया जाए जिससे कि सामाजिक न्याय को सामाजिक प्रगति का हिस्सा बनाया जा सके। अरस्तु के अनुसार व्यक्ति समाज का सदस्य तो हो सकता है लेकिन नागरिक वह तभी कहलायेगा, जबकि वह राज्य की राजनीति में सक्रिय रूप से योगदान करता है और इसी संदर्भ में सक्रिय रूप से योगदान करता है और इसी संदर्भ में अरस्तु कहते हैं कि किसी भी राज्य या समाज में किसी व्यक्ति का जो सक्रिय योगदान होता है उसके समानुपात में समाज की सम्पत्ति का उचित वितरण वितरणात्मक न्याय कहलाता है और इसका निषेध वितरणात्मक सामाजिक अन्याय कहलाता है। लेकिन यह एक आदर्श स्थिति है। व्यवहार में यह कहीं पर भी लागू नहीं है क्योंकि व्यक्ति सदस्य के योगदान का ठीक-ठीक आंकलन संभव नहीं है। इसका कोई पैमाना नहीं है। सीमा रेखा नहीं है! इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक न्याय के नारे ने विभिन्न समाजों में विभिन्न तबकों को अपने लिए गरिमामय जिंदगी की मांग करने और उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है। इन संघर्षों के फलस्वरूप समाजों में बुनियादी बदलाव हुए हैं।

आज भी भारतीय जेलों में विचाराधीन कैदी, भारी संख्या में अनुसूचित जाति /जनजाति और अल्पपसंख्यक वर्ग से आते हैं, तमाम आंकड़ों के अनुसार वे अपनी आबादी में बहुत बड़ी प्रतिशतता रखते हैं। भारतीय शासन के आरक्षित पदों को या तो बैकलाग में छोड़ दिया जाता है या फिर योग्य उम्मीदवार नहीं मिला कहकर उच्च वर्ग के सक्षम वर्ग द्वारा भर दिया जाता है, भारतीय जनमानस द्वारा एक बलात्कार पीडित महिला को ही इसके लिए दोषी ठहराया जाता है, जिस देश के 40 प्रतिशत गरीब बच्चों से आज भी बाल श्रम लिया जाता है, उस देश में लगता है सामाजिक न्याय आज भी कोसो दूर है। लेकिन इसका सुखद पहलू यह है कि आज की मीडिया, साहित्य और प्रगतिशील जगत इस मुद्दे को बार-बार सामने लाता रहा है। इससे सामाजिक न्याय के पक्ष में माहौल बना है। और जब यह माहौल सही मायनों में व्यावहारिक धारतल पर कार्य रूप में परिणित हो जाय तब जाकर यह भारतीय समाज एक विकसित समाज कहलायेगा।


डॉ0 अम्बेडकर का सामाजिक न्याय और दलितोद्धार-


हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। भारतीय हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, रूढ़ियों और व्यर्थ के कर्मकाण्डां से समाज को मुक्ति दिलाने साथ ही समाज के वंचित वर्गो को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए आपने जीवन पर्यन्त वैचारिक संधर्ष किया। आपने हिन्दू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता और कर्मकाण्डीय जाति व्यवस्था के उपर अनेकों प्रश्न उठाये साथ ही उनका उत्तर भी दिया। हिन्दू धर्म में व्याप्त अस्पृश्यता के लिए अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को जिम्मेदार माना। वे कहते हैं कि ‘‘हिन्दू धर्म अपने ही समाज के एक वर्ग के व्यक्तियों के प्रति अस्पृश्यता का व्यवहार करने का आदेश देने के साथ-साथ अस्पृश्य व्यक्तियों को इस स्थापित व्यवस्था के विरोध में न केवल विद्रोह करने से रोकता है, अपितु उन्हें यह आदेश देता है कि उनका यह कर्तव्य है कि वे इस दैवीय एवं पवित्र व्यवस्था को बनायें रखें।’’ 
डॉ0 अम्बेडकर का मानना था कि ‘‘जाति प्रथा से लड़ने के लिए चारों तरफ से प्रहार करना होगा। जाति ईंट की दीवार जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है। यह एक विचार है, एक मनःस्थिति है जिसकी नींव धर्म शास्त्रों की पवित्रता में है। वास्तविक उपाय यह है कि प्रत्येक स्त्री पुरुष को शास्त्रों के बन्धन से मुक्त किया जाय, उनकी पवित्रता को नष्ट किया जाय, इसका सही उपाय है, ‘अन्तर्जातीय विवाह’ तभी वे जात-पांति का भेदभाव बन्द करेंगे। जब जाति का धार्मिक आधार समाप्त हो जायेगा, तो इसके लिए रास्ता खुल जायेगा। खून के मिलने से ही अपनेपन की भावना पैदा होगी और जब तक यह अपनत्व की बन्धुत्व की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक जाति प्रथा द्वारा पैदा की गई अलगाव की भावना समाप्त नहीं होगी।’’ अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए अम्बेडकर ने मार्क्सवादी समाजशास्त्र का सहारा लेते हुए लिखा है कि ‘‘अस्पृश्यता की समस्या वर्ग-संघर्ष का एक मामला है।’’ अपने इन प्रयासों के द्वारा डॉ0 अम्बेडकर ने अस्पृश्यों में जनजागृति लाने के साथ हिन्दू समाज में क्रांति लाने और उसके हृदय में परिवर्तन करने के लिए भी अनेक सत्याग्रह आन्दोलन को संगठित किया और महार आनुवांशिक कार्यभार कानून (वेतन प्रणाली, बंधुआ मजदूरी और दासता प्रणाली) को समाप्त करने का भी प्रयास किया। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा संगठित सत्याग्रह आन्दोलन कानूनो पर अमल कराने के लिए आयोजित किये गये थे। उदाहरणतः 1927 में महाड़ तालाब सत्याग्रह का मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यों के सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के मानवीय अधिकार को लागू करवाया था। 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश का उद्देश्य अस्पृश्यों को सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश दिलाना था। मार्च 1928 में मुम्बई विधान सभा में महार आनुवांशिक कार्य-भार विधेयक का उद्देश्य महारों को खानदानी पेशे से मुक्ति दिलाना था।
डॉ0 अम्बेडकर ने अपने समाज दर्शन की स्थापना में सर्वप्रथम अस्पृश्यता की जड़ वर्ण व्यवस्था पर ऐतिहासिक, नैतिक व तार्किक रूप से प्रहार किया तथा वह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वर्ण व्यवस्था पूर्णतः अवैज्ञानिक, अन्यायपूर्ण, अमानवीय एवं शोषणकारी सामाजिक योजना है। यही वर्ण व्यवस्था कालान्तर में जाति व्यवस्था में परिवर्तित होकर अपिरवर्तनीय हो गयी। अतः जाति व्यवस्था हिन्दू संस्कृति एवं धर्म का ही देन है जिसने समाज एवं देश की सांस्कृतिक व राजनीतिक एकता को खण्डित कर दिया। इन सभी असमानताओं एवं शोषण की मुक्ति के रूप में वे बौद्ध धर्म का समर्थन करते थे। इनका मानान था कि भारतीय धर्मों में केवल बौद्ध धर्म ही धर्म के सच्चे आदर्शों के अनुकूल है। बौद्ध धर्म न केवल मानव एवं मानव के मध्य समानता थी, अपितु स्त्री एवं पुरुष में भी समानता का समर्थन करता है। इसलिए बाबा साहेब हिन्दू धर्म को छोड़ने व बौद्ध धर्म को अपनाने की बात करते थे। इनका कहना था कि अपने ऊपर हो रहे अन्यायों, अत्याचारों व शोषण से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बौद्ध धर्म की शरण में जाना है। डॉ. अम्बेडकर ऐसे प्रथम भारतीय चिन्तक, समाज सुधारक एवं विचारक थे, जिन्होंने समतावादी सामाजिक व्यवस्था अर्थात् स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व के आदर्शों पर आधारित समाज व देश की कल्पना करते थे तथा ऐसी व्यवस्था की स्थापना के लिए वे जीवन भर संघर्ष भी करते रहे।

डॉ0 अम्बेडकर का सामाजिक न्याय और लैंगिक/जेण्डर न्याय-दर्शन-

डॉ0 भीमराव अम्बेडकर न केवल भारतीय समाज के दलितों एवं कमजोर वर्गों के उत्थान कर्ता थ्ो, बल्कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं के प्रति हो रहे जेण्डर असमानता के विरुद्ध जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। उनका प्रमुख उद्देश्य था भारतीतय समाज व्यवस्था का पुर्ननिर्माण करना। उनका मानना था कि लैंगिक असमानता कृत्रिम रुप से भारतीय सामाजिक व्यवस्था द्वारा बनायी गयी है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं को न केवल पुरुषों के अधीन माना गया है, बल्कि उन्हें हमेशा के लिए ऐसे साँचे में ढाला जाता है, जिससे वे जीवन पर्यन्त पुरुषों के नियंत्रण में रहे। हिन्दू समाज में महिलाओं की निम्न स्थिति से चिंतित डॉ0 अम्बेडकर ने न केवल समाज में महिलाओं के निम्न प्रस्थिति को ऊँचा उठाने के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास किया, बल्कि भारतीय धर्मग्रन्थों, वेदों, स्मृतियों एवं परम्पराओं में महिलाओं के प्रति होने वाल्ो जेण्डर असमानता को बढ़ावा देने वाल्ो विचारों का जमकर विरोध किया।

डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि भारतीय महिलाओं को निम्न प्रस्थिति के लिए हिन्दू धर्म ग्रंथ, और स्मृतियाँ जिम्मेदार है। उन्होंने भारतीय इतिहास का गहराई से अध्ययन किया और पाया कि मनु के पूर्व महिलाओं की सामाजिक प्रस्थिति काफी उच्च थी। महिलाओं को पुरुषों के समान सामाजिक प्रस्थिति प्राप्त थी। ल्ोकिन मनु के समय महिलाओं को शिक्षा, विधवा पुर्नविवाह, आर्थिक स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। महिलाओं को तलाक का अधिकार नहीं था, जब कि पुरुषों को तलाक का अधिकार था। मनुस्मृति में कहा गया है कि ‘‘महिलाओं को कभी भी स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहिए, महिलाओं को बचपन में अपने पिता, युवावस्था में अपने पति तथा वृद्धावस्था में अपने पुत्र के नियंत्रण में रहना चाहिए।’’ मनुस्मृती महिलाओं को किसी भी तरह की आजादी नहीं देती थी। इसलिए डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने महिला सशक्तिकरण के लिए कई कदम उठाए। महिलाओं को और अधिक अधिकार देने तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिए सन 1951 में उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ संसद में पेश किया। जिसके तहत स्त्रियों को विवाह विच्छेद (तलाक) का अधिकार, हिंदू कानून के अनुसार विवाहित व्यक्ति के लिए एकाधिक पत्नी रखने पर प्रतिबंध और विधवाओं तथा अविवाहित कन्याओं को बिना शर्त पिता या पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी बनने का हक, हिन्दू विवाह और विशेष विवाह का अधिकार प्राप्त हो सके। डा. अंबेडकर का मानना था कि सही मायने में प्रजातंत्र तब आयेगा जब महिलाओं को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा मिलेगा और उन्हें पुरूषों के समान अधिकार दिए जाएंगे। डॉ. अंबेडकर का दृढ. विश्वास था कि महिलाओं की उन्नति तभी संभव होगी जब उन्हें घर परिवार और समाज में सामाजिक बराबरी का दर्जा मिलेगा। शिक्षा और आर्थिक उन्नति उन्हें सामाजिक बराबरी दिलाने में मदद करेगी।

डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि जेण्डर असमानता का विरोध करने के लिए महिलाओं को शिक्षित करना अति आवश्यक है, इससे महिलाओं में आत्मनिर्भरता आयेगी और उनकी सामाजिक प्रस्थिति भी ऊँची होगी। आपने महिलाओं को कहा कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजे और उन्हें महत्वाकांक्षी बनाये। साथ ही साथ भारतीय सामाजिक व्यवस्था का पुर्ननिर्माण आधुनिक लोकतंत्र के स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर होना चहिए ताकि भारत में जेण्डर न्याय पर आधारित समाज की स्थापना हो सके।

डॉ0 अम्बेडकर का सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान-


भारत में सामाजिक न्याय के प्रेरक अम्बेडकर ने भारतीय समाज जीवन का गहन अध्ययन किया। भारतीय समाज में जाति, वर्ण, धर्म, के आधार पर छुआछूत, असमानता एवं शोषण विद्यमान था। हिन्दू धर्म में विद्यमान वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी, इन्हें अछूत माना जाता था तथा ये आर्थिक रूप से दरिद्र, राजनीतिक रूप से दबे हुए, धार्मिक रूप से बहिष्कृत रहे, उन्हें दास बनाकर दण्डित किया जाता था और सभी मानवाधिकारों से वंचित रखा जाता था। अम्बेडकर ने हिन्दू व्यवस्थापन पर अधिक जोर दिया, उन्होंने प्रचलित अस्पृश्यता, धर्म द्वारा बनाई गई दुर्भावनाओं, असहनीय प्रथाओं, परम्पराओं तथा प्रचलित वर्ण व्यवस्था की जोरदार आलोचना कर समाज के पिछड़ों व दलितों में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मज्ञान, समानता और स्वतंत्रता की भावना भरकर समाज में एक नये युग की शुरूआत की।

अम्बेडकर के अनुसार सामाजिक न्याय का आधार सभी मानव के बीच समानता, उदारता तथा भाईचारे की भावना है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य, जाति, रंग, लिंग, शक्ति, स्थिति तथा धन-दौलत आदि पर आधारित सभी असमानता को दूर करना है। अम्बेडकर के अनुसार मनुष्य द्वारा बनाई गई असमानताओं को कानून, नैतिकता तथा जागरूकता के द्वारा समाप्त कर सामाजिक न्याय की स्थापना की जानी चाहिए। परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान पर अम्बेडकर के सामाजिक न्याय सम्बन्धी विचारों का दोहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। संविधान की प्रस्तावना में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता जैसे शब्दों का प्रयोग सामाजिक न्याय पर अम्बेडकर की धारणा के अनुरूप है। उनके प्रयासों से ही संविधान में अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं पिछडे़ वर्गों को सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए विशेष प्रावधान किये गये हैं। समानता (अनु0 14), अस्पृश्यता (अनु0 17), शोषण की समाप्ति (अनु0 23-24) आदि के साथ ही अनुच्छेद 39, 39 क, 46, 330, 332, 338 एवं 340 आदि अनुच्छेदों पर डा0 अम्बेडकर के सामाजिक न्याय के विचारों का गहरा प्रभाव है। 


निष्कर्ष-


डॉ. अम्बेडकर को हम सामाजिक न्याय का मसीहा कह सकते है। वह उस मूक और शोषित वर्ग की आवाज बने, जो सदियों से गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था। जिसके पुनरुद्धार की दूर-दूर तक कोई आशा नहीं थी। डॉ0 अम्बेडकर उस वर्ग के लिये एक ज्योतिपुंज साबित हुये जिसकी रोशनी में वह वर्ग विकास के पथ पर अग्रसर हुआ। अम्बेडकर देश को आजाद कराना चाहते थे मगर वे देश की राजनीतिक स्वतन्त्रता के पूर्ण सामाजिक स्वतन्त्रता एवं सामाजिक क्रान्ति लाना चाहते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि देश की सत्ता एक अधिनायक एवं शोषक वर्ग (अंग्रेजों) से हस्तांतरित हो कर दूसरे (उच्च जातियों) को हस्तांतरित हो जाये। उनके अनुसार मात्र राजनीतिक स्वतन्त्रता से भारत देश स्वतन्त्र नहीं होगा क्योंकि राजनीतिक स्वतन्त्रता मिलने के बाद उच्च जातियाँ पुनः सत्ता पर प्रभुत्व स्थापित कर नीचे की जातियों को गुलाम बना लेगी। अम्बेडकर स्वतन्त्रता, समानता एवं न्याय को सबमें प्रमुख सामाजिक मूल्य मानते थे। उनका मानना था कि इन मूल्यों की प्राप्ति एक स्वस्थ लोकतन्त्र में ही हो सकती है। उनका दर्शन सामाजिक न्याय का दर्शन है।

सन्दर्भ ग्रन्थ-


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**अनामिका सिंह, शोध छात्रा, समाजशास्त्र विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।

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