-डॉ0 ऋतु दीक्षित
विधि के दायरे में महिलाएं
Women in law
हमारे धर्म प्रधान भरतीय समाज में सदा से ही विभिन्नता रही है और वह स्थिति लिंग विभाजन की श्रेणिबद्धता, जाति, वर्ग नृजातीयता की श्रेणीबद्धता, क्षेत्रीय विभिन्नता के साथ और भी ज्यादा उलझ गई है। महिला और पुरूष स्वयं को विभिन्नता पदानुक्रम में स्थापित पाते हैं तो उनके जन्म और परिवार के प्रमुख पुरूष सदस्यों से सम्बन्धों के आधार पर उन्हें शक्ति और परिस्थिति प्रदान करतें है। महिलाओं का आंदोलन, विधिक व्यवस्था के पितृस्त्तात्मक आयाम का सचेत आलोचक है, इसके अलावा महिला आन्दोलन, महिलाओं के जीवन के बेहतरी के लिए राज्य से कानूनी हस्तक्षेप की मांग करने में कभी संकोच नहीं करतें।
महिला और संविधान
भारतीय संविधान नें महिलाओं ओ समानता प्रदान की 79वाँ और 74वाँ सवैधानिक संशोधन ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर चयनित संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षित स्थान प्रदान करता है। दुखदः वास्तविकता ये है कि ऐसे प्रावधान स्त्री और पुरूष के मध्य वैधानिक समानता के लिए ठोस आधार निर्मित नही कर सके। रोजगार के मामले में, भेदभाव के विरूद्ध संघर्ष 1976 में सामनें आया, जब इस ओर इंगित किया गया कि भारतीय विदेश सेवा नियमों के अनुसार महिला अधिकारियों को विवाह से पूर्व सरकार से विवाह हेतु अनुमति लेना आवश्यक है और यदि सरकार की दृष्टि में ऐसा विवाह या उसका परिवार/पारिवारिक वचनबद्धता उसके दाचित्वों के निर्वहन के मार्ग में आता है तो उसे त्यागपत्र दना पड़ेगा। हन नियमों के आधार पर जब भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी ने अपने अधिकार के मसले को न्यायालय में प्रस्तुत किया (सी. बी. मुथाम्मा बनाम भरत ए.आई.आर., 1979, एस.सी. 1886) तो 1979 में सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियमों को असंवैधानिक करार दिया। रोजगार में महिलाओं का समान अधिकार का मुद्दा नियमित अंतराल पर उठता है ओर कभी-कभी निर्णय पक्षपाती होते हैं। एयर इंडिया बनाम नागेश मिर्जा और अन्या के बहुप्रचारित मसले (ए.आई.आर. 1981 एस.सी. 1829) में, विमान परिचारिकाओं के गर्भावस्था और सेवानिवृत्ति के विषय से सम्बन्धित धारा हो रद्द घोषित कर दिया गया, परन्तु वास्तव में विमान परिचारिकाओं और विमान परिचर के लिए सेवा की स्थितियां भिन्न है परन्तु उसको चुनौती नहीं मिली थी। फिर भी, दुसरे अन्य महत्तवपूर्ण मामले में निर्णय बहुत साफ था। माया देवी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1986)(1 एस.सी.आर. 743)में इस शर्त को कि सार्वजनिक रोजगार के लिए आवेदन करने से पूर्व विवाहित महिला को अपने पति की सहमति की आवश्यकता है, अनु. 14, 15 और 16 का उल्लंघन करने के रूप में चुनौती मिली थी। सर्चोच्च न्यायालय मे ऐसी सहमति की आवश्यकता को असंवैधानिक घोषित किया था।
संविधान ने महिला और बच्चों के पक्ष में साकारात्मक कार्य के सिद्धांत को अपनाया। इस आदर्श ने राज्यों को, स्थानीय सरकार की चयनित निकायों और अन्य चयनित निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान का प्रावधान बनाने के लिए प्रेरित किया और कुछ कानून निर्मित किये जैसे कि 1948 के कारखाना अधिनियम के धारा में, जोखिम और खतरनाकपूर्ण काम में महिलाओं के रोजगार को निषेध करना, 1961 के मातृत्व लाभ अधिनियम के तहत विशेष सुविधाए; भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के अन्तर्गत नियम, घरेलू हिंसा के मामले मे महिलाओं को विशेष मार्ग उपलब्ध कराता है। ऐसे विशेष प्रावधान न्यायालय द्वारा समर्तित है (दत्ततराया मोतीराम बनाम राज्य ए.आई.आर. 1953 बी.आ.एम. 311, के आर. गोपीनाथन बनाम को-ऑपरेटिव सोसायट्सि और अन्य ए.आई.आर. 1987 के.ई.आर. 1671; तोगुरू सुधाकर रेड्डी और अन्य बनाम आंध्र-प्रदेश सरकार ओर अन्य ए.आई.आर. 1994 एस.सी.544)।
व्यक्तिगत कानून की गत्यात्मकता और संविधान उलझे हुए हैं। उदाहरण के लिए टी. सरिया बनाम वेकटा सुब्बही ए.आई.आर. 1983, आंध्र-प्रदेश उच्च न्यायालय 356, के मामले में आंध्र-प्रदेश सरकार नें हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 पर रोक लगा दी, जिसने वैवाहिक संबंध के क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की, न्यायालय के अनुसार यह धारा असंवैधानिक और समान्य है क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनु. 21 द्वारा प्रदत्त वैयक्तिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारो का उल्लंघन करती है। फिर भी इस प्रगतिशील विचार सर्वोच्च न्यायानय द्वारा सरोज रानी बनाम सुदर्शन (ए.आई.आर. 1984, एस.सी. 1562) कुमार के मामले में अस्वीकार करा दिया गया। यहां समादेश याचिका भी है। शहनाज शेख ने भारत गणराज्य और अपने पूर्व पति के खिलाफ समादेश याचिका दायर की, जिसमें उसने मुस्लिम वैयक्तिक कानूनों की सवैधानिक वैधता को चुनौती दी। सभी वैयक्तिक कानून महिलाओं के प्रति भेदभाव करने वाले हैं। इन वैयक्तिक कानूनों को इस आधार पर बार-’बार चुनौती दी गयी कि लिंग के आधार पर भेदभाव को बढ़ाते हैं सामान्यतः वैयक्तिक कानूनों के विषय में न्यायालय हाथ खड़ा करने की अभिवृत्त को अपनाता है। एक तरफ तो न्यायालय राज्य को समान नागरिक संहिता का कानून बनाने के लिए प्रेरित करते है तो दूसरी तरफ ये स्वयं गैर-भेदभव के संवैधानिक प्रावधान के आवेदन को अस्वीकार करते है। जो वैयक्तिक कानूनों से संबंधित मसला है। इस समय न्यायालय में असंहिताबद्ध वैयक्तिक कानूनों के भेदभावकारी प्रावधान के विरूद्ध निर्णय सुनाया, ये वैयक्तिक कानून वैधानिक है परन्तु जब वे गैर-वैधानिक वैयक्तिक कानून हेते है जैसे कि मुस्लिम वैयक्तिक कानून और हिंदू वैयक्तिक कानून के कई असंहिताबद्ध आयाम, तो न्यायालय के अनुसार ये वैयक्तिक कानून संविधान के अनु. 13 परिभाषा के तहत कानून नहीं है और मौलिक अधिकारों के रूप में इसकी गुंजाइश नही है (चोराइन (मजण् ंसण् 1रू10द्ध 114/भारतीय समाज में महिलाएं)।
महिलाओं की अस्मिता के विरूद्ध दुर्व्यवहार
महिलाओं के शरीर और अस्मिता के विरूद्ध होने वाले कुछ गंभीर दुर्व्यवहार
बलात्कार- मथुरा केस (तुकाराम और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (1979) 2 एस.सी.सी.) के बाद से ही बलात्कार शब्द ने निजी क्षेत्र से सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश किया। 1972 में 16 वर्षीय लड़की मथुरा के साथ पुलिस थाने के परिसर में बलात्कार हुआ था। सत्र न्यायालय ने इस आधार पर सिपाही को विमुक्त कर दिया था कि बलात्कार प्रमाणित नहीं हुआ है। इससे भिन्न उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि सहमति/निष्चेष्ट आत्मसमर्पण के मध्य अंतर होता है, और निस्सहाय आत्म समर्पण धमकी के आधार पर होता हे जिसे सहमति के तौर पर नहीं माना जा सकता।उच्च न्यायालय ने दो पुलिस वालों को दोषी ठहराया और दंडादेश दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया और दोनों सिपाहियों को इस आधार पर विमुक्त कर दिया कि बलात्कार प्रमाणित नहीं हुआ था।
1979 के इस निर्णय ने चिंतित नागरिकों में जोश भर दिया। महिला संगठनों ने मीटिंग आयोजित की और इस निर्णय का प्रतिवाद किया। यह मसला बलात्कार से संबंधित कानून में परिवर्तन की मांग से निर्णायक मोड़ पर आ गया । बलात्कार का मुद्दा सार्वजनिक बहस के केंद्र में आ गया, महिलाओं के साक्ष्या की विश्वसनीयता के मुद्दें के विषय मे महिलाओं के चरित्र और पिछले यौन संबंध के इतिहास को साक्ष्य के रूप में प्रयोग करने की प्रथा और सामान्यतः राज्य की विशेषकर न्यायालय की भूमिका पर प्रश्न उठ रहे हैं।
इस बहस से यह स्पष्ट हो गया कि बलात्कार का मुद्दा कानून द्वारा प्रभावित है जो बहुत लंबे समय से अपरिवर्तित रह गया है। ये कुछ प्रावधान बलात्कार के दुर्व्यवहार को प्रभिवत करते है : भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 375 व 376; भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए और भारतीय साक्ष्या अधिनियम की धारा 114-ए एवं 155/80 के दशक के कानून में बदलाव की मुख्य प्रेरण महिला आंदोलन और महिला सांसदों का दबाव था। सभी पश्चगामी प्रावधान, प्रगतिशील प्रावधानों द्वारा प्रतिस्थापित नहीं किए गए परंतु कुछ परिवर्तन लाया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह था कि सहमति के निर्धारण के लिए पीड़ित के पक्ष को महत्व दिया जाये, बलात्कार विशेषरूप से हिरासत में बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा, हिरासत की स्थिति में बलात्कार सिपाही, लोकसेवक, लोक अस्पताल/रिमांड गृह के मैनेजर और जेल के जेलर द्वारा किया जाता है।
इस संदर्भ में भंवरी देवी का मसला भी महम्वपूर्ण है जिसने 1992 मं राष्ट्र का ध्यान आकर्षित किया। भंवरी देवी राजस्थान के भतेरी गांव में रहती हैं और गांव में महिलाओं के विकास कार्यक्रम में ‘साथिन’ के (महिलाओं की सहयोगी) रूप में काम करती र्थी । भंवरी देवी महिलाओ के विकास और बाल विवाह के विरूद्ध सक्रिय रूप से काम करती थी इसलिए उनके पति को बुरी तरह पीटा गया और भंवरी देवी का बलात्कार उन व्यक्तियों द्वारा किया गया जिन्हें वह जानती र्थी उन्होने इसका प्रतिवाद किया परन्तु वे प्रक्रिया और निहित स्वार्था के शिकार हो गए। सर्वोच्च न्यायालय ने अभियुक्तों को बहुत कम सजा दी। यह तथ्य है कि प्रायः बलात्कार के मामलों को किसी महिला के विरूद्ध िंहंसा के तौर पर नहीं देखा जाता बल्कि इसे एक पुरूष को अनियंत्रित हवस के तौर पर देखा जाता है। इस मुद्दे से संबंधित और भी मसले हैं जैसे-कामुकता; महिलाओं की शलीनता या कौमार्य के खोने पर स्थापित विचार और विवाह की संभावनाः अक्सर ही बलात्कार के शारीरिक पक्ष पर ध्यान केन्द्रिय किया जाता है। न्याय का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में विलंब से मर जाता है साथ ही पीड़ित को परेशान करने वाले प्रश्न, और विकृत मेडिकल रिपोर्ट, गवाही को दोषपूर्ण तरीके से लिखना और मामले की संवेदनशील विशेषता न्यायिक प्रक्रिया को प्रभवित करते है।
महिला और पुरूषों के व्यवहार पर समाज का दोहरा मापदंडख स्वस्थ विचारों के विकास में बाधक है। महिलाऐ पुरूषों के समख हीन समझी जाती है एवं उसके विचारों को गंभीरता से नहीं लिया जाता, हालांकि भारतीय दंड संहिता की धारा 254 के अंतर्गत महिला के शील को भंग करना और भारतीय नागरिकता के मौलिक दायित्वों को भंग करना, अपराध माना गया है। जीवन के प्रत्येक स्तर पर महिला की प्रतिष्ठा असुरक्षित है। बहुत काम व्यक्तियों के पास अनिष्ट सूचक संघर्षा का सामना करने और अपने को बचान का साहस व धैर्य होता है। एक वरिष्ट आई.ए.एस. महिला अधिकारी उस समय स्तब्ध रह गई जब एक उच्च पदस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा ‘उसके पीछे’ थप्पड मारा गया। जब महिला अधिकारी इस मसले को न्यायालय में ले गई तो उसे लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय ने महिलाओं की शलीनता को विस्तृत अर्थ में स्वीकार किया (रूपन देओल बजाज और अन्या बनाम कवर पाल सिंह गिल और अन्या (1995) 6 एस.सी.सर.194) परन्तु इतनी लंबी वैधनिक लड़ाई लडने का साहस व दृढता बहुतो में नही होती ।
सती- स्वतंत्र भारत के सामाजिक ढांचे पर यह दुःखद टिप्पणी है कि सती आयेग (निरोधक ) अधिनियम 1987 मे पारित हुआ जबकि सती प्रथा 1829 मे ही वैधनिक रूप से समाप्त हो गयी थी। राजस्थान के दैवरौला जिले की किशोर और शिक्षित युवती रूपकंबर के बारे में कहा जाता था कि उसने स्वयं को अपने पति का चिता पर सती कर लिया, यह एक ऐसी घटना थी जिसने परिवार और समुदाय के सम्मान में वृद्धि की। 1987 के अधिनियम में बहुत से बचाव के रास्ते हैं, जिसमें पीड़ित के बच जाने पर उसे भी दंडित करना, शामिल है। जल्दीबाजी में निर्मित इन कानूनों पर महिला संगठनो का परामर्श नहीं लिया गया।
3. दहेज-दहेज लेने और देने की प्रक्रिया गहरी जड़ चुकी है और यह बहुधा लड़कियों की शिक्षा को अपेक्षा, अभिभावकों की दरिद्रता और यहां तक कि लडंकियें की आत्महत्या का भी कारण बनती है। समाज-सुधारकों और प्रगतिशील तत्वों द्वारा निंदित किए जाने पर भी यह प्रथा समाज के सभी स्तरों पर सतत् रूप से फैल गयी है, यहां तक कि समाज के उस भाग में भी, जहां पहले यह प्रथा नहीं पायी जाती थी। अस्सी का दशक इस बुरी प्रथा के विरूद्ध व्यापक प्रदर्शन व उग्र प्रतिरोध का गवाह है, संसद ने 1961 में दहेज निरोधक अधिनियम बनाया जिसका 1984 और 1986 में संशोधन हुआ। भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए और 304 बी. के. प्रवेश एवं आपराधिक दंड संहिता में अनुश्ांगिक संशोधन (धारा 174(3) व 176) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम धारा (113-ए व 113 बी) के अनुसार दहेज प्रथा को रोकने के लिए मौजूदा कानून को और मजबूत बनाया जाय। अब दहेज का दुर्व्यवहार विचारणीय और गैर-जमानती माना जाता है, दहेज लेना-देना निषेध है, महिला को आत्महत्या के लिए बाध्य करने की दूसरों की निर्दयता दंडनीय है। विवाह के सात वर्ष के अन्दर किसी महिला की मृत्यु या आत्यहत्या जांच को बैठा सकता है।
कई निर्णयों मे सर्वोच्च न्यायालय ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को महत्व दिया जैसे-दहेज की मांग और उत्पीड़न के बारे मे दहेज पीडित द्वारा संबंधियों को लिखा पत्र और पीड़िता की मौत के तुरंत बाद ही शरीर का दाह-संस्कार कर देना। मरणासन्न अवस्था में दहेज पीड़िता द्वारा इस घटना में पति और अपने सास-ससुर की भूमिका पर दिया गया बयान पर भी विचारणीय होता है। पुलिस द्वारा की जाने वाली पूछताछ और जॉच-पडताल के प्रति न्यायालय की संवेदनशीलता बढ़ गई है।
तथापि यह उल्लेखनीय है कि न्याय के शिकंजे से अभियुक्तो का बच निकलना मुश्किल नही है। एक कुख्यात मामले मं, महाराष्ट्र राज्य बनाम अशोक चोटेवाल शुक्ला 1997), 11 एस.सी.सी. 26), में दहेज पीड़िता, विभा शुक्ला, जलकर मर गई। सत्र न्यायालय ने उसके पति को, अपनी पत्नी से निर्दयता का दुर्व्यवहार करने और पत्नी की मौत के कारण के लिए दोषी ठहराया। फिर भी उच्च न्यायालय ने इस निर्णय को उलटते हुए यह निर्णय दिया कि अभियोजन पक्ष, युक्तिसंगत संदेह से परे, यह स्थापित करने में असफल रहा कि लड़की ने पति के दुर्व्यवहार या निर्दयता के कारण आत्महत्या की। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा कि इस निर्णय को अनुचित नही कहा जा सकता।
बहुधा अभिभावक यह नही चाहता कि उनकी विवाहित बेटी पैतृक घर लौटे। इसलिए वे दहेज की मांग पूरा करते है बजाय इसके कि वे अपनी बेटी के सम्मानित जीवन के लिए योजना बनाए। निस्सहाय और अपमानित महिला या तो आत्महत्या को गले लगाती है या फिर अपने ससुराल में जला दी जाती है। अधिकतर मामले तभी दर्ज होते है जब लड़की पर जाती है। दु‘खद वास्तविकता यह है कि ऐसे आघातों के बाद भी अभिभावकों की मानसिकता अपरिवर्तित रहती है। न्यायपालिका प्रचलित परिस्थितियों में प्रभावशाली परिवर्तन लाने में सक्षम नही है। हालंकि न्यायालय दहेज प्रथा की निंदा की परंतु इसका तरीका केवल प्राबल्य पारिवारिक विचारधारा की पितृवंशीय पुर्णधारणा को स्वीकाना था कि किस तरह वधुएं अपने जन्म के परिवार से विवाह के परिवार मे स्थानांंतरित होती है (कपूर और कोसमैन :129)।
4-अन्यागमन-अन्यागमन के व्यावहार के बारे में परंपरागत मूल्यो मे स्पष्ट किया कि पत्नी पति की संपत्ति है। भारतीय दंड संहिता की धारा 497 विवाहित पुरूषों को बच निकलने का रास्ता प्रदान करती है क्योंकि इसके अंतर्गत केवल उन पुरूषों पर मुकदमा चलाया जा सकता हे जिसका अपनी भूतपूर्व पत्नी के साथ यौन संबंध है/था। अगर व्यक्ति का संबंध किसी अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिला से है तो वह इस धारा की सीमा मे नही आएगा।
न्यायिक व्यवस्था मं पुरूष और महिला को भिन्न तरीके से देखा जाता है,महिला को पीड़ित के रूप में तो पुरूष को प्रलोभक के रूप मे। उदाहरण के लिए सौमित्री विष्णु बनाम भारतीय गणाराज्य (1985 एस.यू.पी.पी.एस.सी.सी. 137) का मामला लिया जा सकता है। हस मामले में, धारा 497को एक महिला द्वारा असवैधानिक तौर पर चुनौती मिली थी, जिसके पति ने उसके प्रेमी पर अन्यागमन का मुकदमा दिया था। महिला का तर्क था कि यह धरा भेदभावकारी है क्योकि पति को अन्यागमन का मुकदमा चलाने का अधिकार है परंतु पत्नी को अपने अन्यागामी प्रति या उस महिला पर जिसके साथ उसके पति के संबंध है, पर मुकदमा चलाने का अधिकार नहीं इसके अतिरिक्त, यह धारा उस परिस्थिति का भी स्पष्टीकरण नहीं करती जिसमे पति का अविवाहित माहिलाके साथ यौन-संबंध हो। न्यायालय ने याचिका रद्द कर दी और कहा कि पुरूषों के अन्यागामी होने की परिभाषा में भेदभाव नही है, न्यायालय ने पुनः वीण रेवती बनाम भारतीय गणराज्य (1988) 2 एस.सी.सी. (72) के मामले मे भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 497 और 1973 के अपराधी कार्य प्रणाली की संहिता की धारा 198(2) का अनुमोदन किया और विचार की प्रगतिशील दिशा को स्वीकार नही किया।
5-वेश्यावृति-वेश्यावृति भारत में वेश्यावृत्ति को प्रतिवंधित करने के लिए कुछ विशेष वैधानिक प्रावधान है। भारत संविधान का अनु. 23 मनुष्यों के व्यापार को निविद्ध करता है । भारतीय दंड संविधान की धारा 372 और 373, वेश्यावृत्ति के उददेश्य से नाबालिग को खरीदने और बेचने को सजा देती है जबकि धारा 360 से 371, दासता, अपहरण और भ्गा ले जाने वाले दुर्व्यवहार से संबंधित है। अनैतिक व्यापार (निरोधक) अधिनियम (1956), 1986 में संशोधित हुआ था, इस अधिनियम का मुख्य उददेश्य वेश्यालय रक्षको, दलालों और उन व्यक्तियों को जो वेश्यावृति की आय पर आश्रित होते है। प्रयोग वेश्यावृति के उददेश्य से व्याक्तियों के व्यापार में शामिल होते है, को दंडित करना है। फिर भी इस अघिनियम के प्रावधान बहुत व्यवहारिक नहं हैं। प्रावधान का ज्यादा प्रोग उनको दंडित करने में हुआ जो वेश्याकर्म में लिप्त है या सार्वजनिक स्थानो क समीप वेश्यावृति करती है। प्रावधान के तहत वेश्यावृति के उददेश्य से बहकाना या याचना करना निषेध है।
वेश्यावृति को उन्मूलित करने मे वैधानिक प्रावधान प्रभावशाली नही हुए। वैधनिक रूप से वेश्यावृति स्वयं मे अपराध नहीं है परंतु सार्वजनिक स्थान के निकट ऐसा व्यवहार करना इसे अपराध बनाता है। इस कानून को लागू करने में इसकी कई कमजोरियां दिखती है जैसे कि मर्यादित परिवार का दिखावा, अपर्याप्त सजा, और यह प्रावधान उस स्थान से साक्षी की मांग करता है (कम से कम उसमें एक महिला हो)। देश में महिलाएं निरंतर खरीदी और बेची जा रही है। वेश्याओं की पूनर्वास सुविधाएं प्रायः काल्पनिक होती है सर्वोच्च न्यायालय ने उपेंद्र बक्शा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1986) 4 एस. सी.सी.106, मामले में संरक्षात्मक गृहों के निवासियों के मानवाधिकार पर बल देने की निर्देषिका जारी की। विशाल जीत बनाम भारतीय गणराज्य (1990) 3 एस.सी.सी. 318 में, सर्वोच्च न्यायालय ने वेश्यालय रक्षको, खरीददारों और दलालों के विरूद्ध त्वरित एवं कठोर कार्यवाही करने का सुझाव दिया। परंतु इस लक्ष्या की ओर उन्मुख कार्यवाही अत्यधिक घीमी व निरूत्साहित है।
समकालीन प्रसंग
मौलिक अधिकारों को प्रदान करना और प्रतिशील कानूनों को पारित करना समतावादी समाज की निर्मित करने का मार्ग नही यद्यपि भारत के संविधान ने, पति व पत्नी के वैवाहिक और एकाकी परिवार, जिसमें दोनो ने अपनी पसंद से प्रवेश किया है, के मानकों के समतावादी रूप को निर्धारित किया है और बहुत से कार्य खासतौर पर वैयक्तिक कानूनों के संबंध मे अलग-अलग धार्मिक समुदायों में परिवार के प्रकार को कानूनी वैधता प्रदान किया है जो परस्पर भिन्न और कभी-कभी परस्पर विरोधी भी होते है। ये अधिनियम वैयक्तिक कानून से संबंधित पैतृक, एकविवाही, द्विविवाही परिवारो की अनुमति देते हैं जो ना केवल परिवार के विभिन्न संरचनाओं का आकार देते वनन् परिवार में विविध सदस्याके के मध्य दायित्व व अधिकारे में भिन्नता और अंतर्विरोध भी प्रदान करते है जिसे तरह से उत्तारधिकार, वंश दायाधिकार और परिवार के अन्य मामलों के संदर्भ में विभेदीकरण होता है। (दसाई : 47)।
यह आसान नही है कि वैधानिक कार्यप्रणाली, सामाजिक परिवर्तन के वेग का पक्ष लें। राज्य के नीति निदेशक तत्व आदर्शात्मक बने हुए है और पुराने व्यवहार सक्रिय है। यहं पर 1954 का विशेष विवाह अधिनियम जैसा अधिनियम है परंतु अभी तक प्रगतिशील कानून अपर्याप्त है। महिला मुद्दो पर परिदृश्य मूलतः अपरिवर्तित है। महिला को अभी तक नागरिक की अपेक्षा, ज्यादा सहनशक्ति और नैतिकता के साकार रूप मे पुरूष के बरावर एवं विकास की प्रक्रिया में सहभगी के तौर पर देखा जाता है। द्विविवाह, दहेज, लिंग निर्धारण परीक्षण परीक्षण और वेश्यावृति (वाल वेश्यावृति भी शामिल) जैसी बुराइयां अभी तक समाप्त नहीं हुई है। पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 ने भी महिलाओं के राहत प्रदान नहीं किया। महिलाओं के विरूद्ध उपराध की दर घट नहीं रही । इसके अतिरिक्त कानूनी प्रक्रिया खर्चीती और बोझिल हैं
महिला श्रमिको के लिए चहां कुछ विशेष प्रावधान है। फिर भी यह तथ्य है कि ऐसे कानूनों का प्रावधान उन सभी तक नहीं पहुॅच पाता है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव का मसला, न्यायालयों के कुछ सकारात्मक निर्णयों के बावजूद चिंता का विषय है। एम/एस मैकीनेंजी एंड कम्पनी लि0 बनाम उदरे डी0 कोस्टा और अन्य (ए आई.आर. 1987 एस.सी. 1281) के मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने निर्देशित किया कि समान कार्य या समान प्रकृति का कार्य करने वालें महिला और पुरूष आशुलिपिक को समान पारिश्रमिक दिया जाए। परन्तु तुलनात्मक काम का विचार पूर्णतया स्वीकृत नहीं है। सवैधानिक कानूनों की अनुपस्थित में सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा और अन्या बनाम रास्थान राज्य और अन्य (1997)(7) सुप्रीम, 323; के मामले में, सभी कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न का निरभ्क्षण करने के लिए मानक और निर्देषिका का निर्णय दिया, जबकि इस उददेश्य से विधि-निर्माण हो चुका है।
कुछ वैधानिक कार्यवाहियें के प्रावधान और उनकी प्रासंगिकता के ऊपर भी विचार-विमर्श हो रहा है। धारा 498-ए विवाहिता महिला को उसके पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा उत्पीड़ित द्वारा उत्पीड़ित करने और निर्दयता का व्यवहार करने पर दंडित करती है, वर्तमान मं इस धारा पर लोगों को आपत्ति है क्योंकि उनका कहना है कि इस धारा को महिला अपने पति और सास-ससुर को उत्पीड़ित करने के लिऐ कर सकती है। वेश्याएं जिन्हें सेक्स वर्कर कहा जा सकता है, एक मुद्दा है और किस तरह उनके अधिकारों की रक्षा की जाए, एक प्रश्न है। वर्तमान मे महिलाओ के स्वास्थ्य और गर्भ निरोधक के तरीको से संबंधित मुद्दा नया आयाम माना जा रहा है। गर्भपाल, पश्चिम के देशों की तरह भारत मे विवाद का विषय नही है। भारत में लिंग निर्धारण परीक्षण के लिए तकनीकी के दुरूपयोग को नियंत्रित करने का भी कानून है। पंरतु स्वयं में ये अधिनियम महिलाओं को सशक्त नहीं करता। दूसारा कष्टप्रद मुद्दा, मीडिया में महिलाओं की छवि हैं। 1986 का महिलाओं का अश्लील प्रदर्शन (प्रतिरोध) महिलाओं के अश्लील प्रदर्शन को निषेघ करना हैं परंतु यह निर्णय करना आसान नहीं है कि क्या अश्लील या अनैतिक है। उदाहरण के लिए बैंडिट क्वीन सिनेमा मे दिखाये गये बलात्कार के दृश्य पर एक याचिका दायर की गई, जो बांबी आर्ट इंटरनेशनल, अतिरिक्त बनाम ओमपाल िंसहं हून और अन्य (1996)(3) एस.टीण् 772) के नाम पर है इसमे यह निर्णय दिया गया कि ये दृश्य विषय’वस्तु मे सहायक है औार इनका उद्देश्य कामोतेजक विचारो को भडकाना नही है वरन् अपराधी के प्रति घृणा और पीड़ित के प्रति सहानुभूति जगाना है।
कानून शास्त्री विशषकर महिलावादी विद्वानो में विचार की समानता और भिन्रता पर बहस है। महिलाएं पुरूषों के समान कही जाती है और परिणमतः समान मानदंड से उन्हे आंका जाता है। ये मुद्दे भारतीय परिस्थिति में ज्यादा जटिल हो जाते है, जहां की वैधानिक व्यवस्था, औपनिवेशिक व्यवस्था से लेकर स्वतंत्र शासन तक के दौरान विकसित हुई और इसके परिणाम ये परंपरा, धिर्मक व्यवहार समानता व अधिकारों क सिद्धांत का विलक्षण मिश्रण है। समानता का ओपचारिक आदर्श, अभिन्नता सहित सभी को बराबर मानता और केवल वे जो समान है उनके साथ समान व्यवहार किया जाता है, इस्के विरोध मे समता का वास्तविक आदर्श इस मान्यता के साथ आया कि कभी-कभी समानता के साथ आवश्यक यह है कि व्यक्तियों के साथ भिन्न व्यवहार किया जाए। यहां पर मुख्या केद्र बिंदु, महज कानून के अंतर्गत समान व्यवहार नही है बजाय इसके कानून के वास्तविक प्रभाग पर जोर है। इस आदर्श का निश्चित उद्देश्य समाज के सुविधाविहीन वर्गो की वास्तविक असमानता को समाज से निष्काषित करना है। समानता का ओपचारिक आदर्श न्यायलय के तरीको के ऊपर अपनी पकड़ बनाये हुए है हालांकि समानता के वास्तविक आदर्श की दिशा मे कुछ अतिक्रमण़ हो रहे है। (कपूर और कॉसमैन : 1993)
महिलाओं को यथार्थ आदर्श को विकसित करने में अपना ध्यान लगाने की आवश्यकता है जिसने महिलाओं के संघर्ष के लिए वृहद वायदे किये है। (कपूर और कॉसमैन : 1996)। इस बात को स्वीकार लिया गया है कि कानून स्वयं से सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता। जो आवश्यक है वह यह है कि उन विचारधाराओं और रणनीतियों को जो महिलाओं की अधीनता को सुद्रढ़ करती है उनकी परिसीमाओं को निरंतर चुनौती दी जाए साथ ही साकारत्मक विचारधारा का चेतन प्रतिपादन और समता के पुनर्निर्माण के लिए व्यवहार किया जाए।
संदर्भ सूची...
1- उपेंद्र बक्शी (1984), ‘‘पैट्रियार्की, लाम् एंड स्टेट-सम प्रिलिमनरी नोट्स’’ : यह शोध पत्र महिला अध्ययनों पर द्धितीय राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया था, अप्रैल 9-12, त्रिवेंर्दमपुरम्।
2- रत्ना कपूर और बेद्रा कॉसमैन (1993) ऑन वुमेन, इक्विलिटी एंड द कांस्टीट्युशनः थ्रो द लुकिंग ग्लास ऑफ फैमिनिशम, इन स्पेशल इश्यू-फैमिनिसम एंड लॉ, नेशनल लॉ स्कूल जर्नल
3- क्रिस्टाइन चोराइन, मिहिर देसाई, कॉलिन गोनसेलेक्स (1999), वुमेन एंड द लॉ, प् और प्प् सामाजिक- वैधानिक सूचना केंद्र मुंबई (ये खंड इस अध्याय में सूचना के मुख्या स्त्रोत के रूप मे प्रयुक्त हुए)।
4- स्टेट जेंडर एंड द रिट्रोरिक ऑफ लॉ रिफार्म, ‘‘ महिलाओं के अध्ययन का शोध केंद्र’’, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, मुबई।
5- सबर्वसिव साइटः फैमिनिस्ट इंगेज्मेंट विद लॉ इन इंडिया (1996)-सेज पबिलकेशन, नई दिल्ली।
6- अर्चना पराशर (1992)-वुमेन एंड फेमिली लॉ रिफार्म इन इंडिया, सेज पब्लिकेशन, नई दिल्ली।
7- एस.पी.साठे (1993)-‘‘लिंग न्याय की दिशा में’’ महिला अध्ययन के लिए शोध केद्र, एस.एन.डी.टीत्र. महिला युनिवर्सिटी, मुंबई।
-वरिष्ठ प्रवक्ता समाजशास्त्र विभाग, डी.ए.के. महाविद्यालय, मुरादाबाद।
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