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बाबासाहेब डॉ भीम राव आंबेडकर का जीवन दर्शन Dr. Bhim Rao Ambedkar


बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर का जीवन दर्शन 

Dr. Bhim Rao Ambedkar 

हिन्दू धर्म में शुचिता-अशुचिता की धारणा पर व्याप्त जाति व्यवस्था के घोर विरोधी एवं कटु आलोचक, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ0 अम्बेडकर एक विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, संविधान विशेषज्ञ के अतिरिक्त एक सामाजिक और धार्मिक चिन्तक एवं सिद्धान्तकार भी थे। उन्हें स्वतंत्र भारत के संविधान के निर्माता और दलित चेतना के प्रतीक पुरूष के रूप में जाना जाता है। शांतिपूर्ण सामाजिक क्रान्ति उनके जीवन की प्रमुख मिशन था। सामाजिक क्रान्ति अर्थात् सामाजिक जड़ताओं से छुटकारा पाने और एक ऐसे समाज की रचना जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच जन्म, जाति, आर्थिक स्थिति, लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो और सबके लिए उन्नति और विकास के समान अवसर व साधन उपलब्ध हों। समाज अंधविश्वासों, रूढ़ियों और व्यर्थ के कर्मकाण्डां से मुक्त हो। उनका मानना था कि समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सर्वोच्च मानव-मूल्यों को प्राप्त करने के लिए जाति-व्यवस्था को समाप्त करना आवश्यक है। इसकी समाप्ति के बिना न समाज में समृद्धि होगी और न ही शांति की स्थापना संभव है। एक बार समाजवादियों के एक सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होने कहा था, ‘जब तक जाति के दानव से नहीं लड़ा जायेगा, तब तक न तो इस देश में समाजवाद आयेगा और न ही लोकतंत्र स्थापित होगा।

डॉ0 अम्बेडकर ने जन्म से ही विपदाओं का सामना किया क्योंकि उनका जन्म एक ऐसी जाति में हुआ था जो उन दिनों अछूत समझी जाती थी। हिन्दू समाज के अछूत समुदाय में महार एक ऐसी जाति है जो शक्तिशाली, लड़ाकू और बहादुर कही जा सकती है। कुछ लोगों का विश्वास है कि महार ही महाराष्ट्र के मूल निवासी हैं। महाराष्ट्र महार-राष्ट्र से ही बना है। भारत में यूरोपियन सबसे पहले महारों के ही सम्पर्क में आए। वे सेना में भर्ती हुए। लेकिन 1892 ई0 में सेना में महारों की भर्ती बन्द कर दी गई। डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का जन्म मध्य प्रदेश में इन्दौर के निकट एक फौजी छावनी, महू में 14 अप्रैल 1891 ई0 को एक महार परिवार में हुआ था।1 उनके पिता रामजी सकपाल सैनिक शिक्षा सेवा के अन्तर्गत एक मुख्याध्यापक थे। माता भीका बाई की ममता का सुख डॉ. अम्बेडकर को मात्र पाँच वर्ष की आयु तक ही प्राप्त हो पाया।2 माता के देहान्त के पश्चात् इनके पालन-पोषण का दायित्व मीरा बाई पर आया। अम्बेडकर के दादा अवकाश प्राप्त सैनिक मालोजी सकपाल रत्नागिरी जिले के एक इज्जतदार महार परिवार से सम्बन्ध रखते थे। अम्बेडकर जी के परिवार का कुलनाम सकपाल था। परन्तु उनके पूर्वजों ने कुलनाम अपने गाँव अम्बावडेकर के नाम पर रखा। इस प्रकार विद्यालय में इनका नाम भीमा रामजी अम्बावडेकर लिखा गया।

डॉ0 अम्बेडकर की प्राथमिक शिक्षा सतारा और बम्बई के प्रसिद्ध एल्फिन्सटन हाईस्कूल से 1907 ई0 में मैंट्रिक की परीक्षा पास की। इस अवसर पर के0 ए0 केलुस्कर ने अम्बेडकर को गौतम बुद्व की एक जीवनी भेंट की। जब अम्बेडकर जी 14 वर्ष के थे और पांचवी कक्षां में पढ़ते थे तब उनका विवाह 9 वर्षीय सुशील बालिका रामाबाई के साथ कर दिया गया। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर बड़ौदा महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए 25 रु0 प्रतिमाह की छात्रवृत्ति स्वीकृत की। अम्बेडकर ने 1908 ई0 में एल्फिन्स्टन कॉलेज में प्रवेश लिया। नवम्बर, 1912 ई0 में उन्होंने अंग्रेजी और फारसी विषयों में बी0 ए0 की परीक्षा पास की। इसी बीच 2 फरवरी, 1913 को उनके पिता का देहान्त हो गया। कुछ दिन बाद बड़ौदा नरेश महाराजा सयाजीराव गायकवाड ने अम्बेडकर को अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु भेजा जहाँ विख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर एस.ए.सैलामैन के सम्पर्क में रहते हुए, 1915 में अर्थशास्त्र विषय में एम.ए. की शिक्षा पूर्ण की। और जून 1915 में उन्हें ‘प्राचीन भारतीय व्यापार’ विषयक थीसिस पर एम.ए. की डिग्री प्राप्त की।  इस प्रकार किसी विदेशी विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाला यह पहला महार छात्र था।

जून 1916 में अम्बेडकर ने पी.-एच.डी. के लिए ‘‘नेशनल डिविडेंड फॉर इण्डिया : ए हिस्टोरिक एण्ड अनेलेटिकल स्टडी’’ विषय पर थीसिस प्रस्तुत की। आठ साल बाद ‘‘द इवोलूशन ऑफ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इण्डिया’’ के नाम से यह थीसिस एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। यह पुस्तक बड़ौदा नरेश महाराजा सयाजीराव को समर्पित की गई थी और जिसकी प्रस्तावना प्रो0 एस.ए. सैलिगमैन ने लिखी थी। इसमें प्रो0 एस.ए. सैलिगमैन ने कहा है-‘‘मेरे विचार में अधोगत सिद्वान्तों का इतना विस्तृत विवेचन कहीं और नहीं मिलेगा।’’ 1916 ई0 में डॉ0 अम्बेडकर कोलम्बिया विश्वविद्यालय से ‘लन्दन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स एण्ड पोलिटिकल साइंस’ में एम.एस-सी. (अर्थशास्त्र) के अध्ययन के लिए गए।     किन्तु बदकिस्मती के कारण एक वर्ष तक अध्ययन करने के उपरान्त उन्हें भारत लौटना पड़ा क्योंकि बड़ौदा नरेश ने उनकी छात्रवृत्ति बन्द कर दी। प्रो0 कैनन की सिफारिश से उन्हें अक्टूबर 1917 से अधिकतम चार वर्ष के अन्दर लंदन विश्वविद्यालय में अपना अध्ययन जारी रखने की अनुमति प्राप्त हो गयी।

जूलाई 1917 में अम्बेडकर को महाराजा बड़ौदा का सैनिक सचिव बनाया गया ताकि आगे चलकर वे राज्य के वित्त मंत्री बन सके। किन्तु सवर्ण हिन्दुओं के दुर्व्यवहार के कारण उन्हें बड़ौदा छोड़ना पड़ा। नवम्बर 1917 में वे बड़ौदा से बम्बई आ गए। उस समय तक उन्होंने एक पुस्तिका लिखी-‘‘स्माल होल्डिंग्स इन इण्डिया एण्ड देयर रिमैडीज।’’ 1918 में उनकी नियुक्ति बम्बई के सीडेनहम कॉलेज में रानैतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक के पद पर हुई। उन्होंने 11 नवम्बर, 1918 से 11 मार्च 1920 तक कॉलेज में काम किया और फिर लंदन में कानून और अर्थशास्त्र की पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रस्थान किया। इस संबंध में कोल्हापुर के महाराजा साहू छत्रपति ने भी उनकी सहायता की। 31 जनवरी 1920 को अम्बेडकर ने एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया ‘मूक नायक’, जिसका उद्देश्य भारत में दलित एवं अछूत जातियों की आवाज बनना था। सितम्बर 1920 में अम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स एण्ड पोलिटिल साइस’ में फिर दाखिला लिया और बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त करने के लिए ग्रेज इन में नाम लिखाया। लंदन में उन्होंने नए सिरे से अध्ययन शुरू किया। वे कई पुस्तकालयों के सदस्य बने जैसे लंदन यूनिवर्सिटी जनरल लायब्रेरी, गोल्डस्मिथ लायब्रेरी ऑफ इक्नोमिक लिटरेचर, ब्रिटिश म्यूजियम लायब्रेरी तथा द इण्डिया आफिस लायब्रेरी। इन पुस्तकालयों में वे सारे-सारे दिन बैठकर पढ़ा करते थे।

जून 1921 में लंदन विश्वद्यिलय ने उनकी थीसिस स्वीकार कर ली गयी। ‘प्रोविशियल डिसेन्ट्रलाइजेशन ऑफ इम्पीरियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इण्डिया’ एम0एस-सी0 (अर्थशास्त्र) की डिग्री के लिए इस थीसिस की विषयवस्तु थी । 1922-23 के दौरान उन्होंने जर्मनी के बोन विश्वविद्यालय में कुछ महीनों तक अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। डी0 एस-सी0  (अर्थशास्त्र) के लिए उन्होंने मार्च 1923 में अपनी थीसिस ‘द प्रोबलम ऑफ द रूपी-इट्स ओरिजन एण्ड इट्स सोल्यूशन’ प्रस्तुत की। यह थीसिस दिसम्बर 1923 में लन्दन की पी0 एस0 किंग एण्ड कम्पनी ने प्रकाशित की। इस पुस्तक की भूमिका प्रोफेसर कैनन द्वारा लिखी गई। उन्होंने डॉ0 अम्बेडकर की इसके लिए मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा की। उन्होंने उनके विचारों में नवजीवन फूँका। सन् 1923 में भारत लौटकर डॉ0 अम्बेडकर अप्रैल 1923 में बार के सदस्य बनाकर वकालत तथा अछूतों और गरीबों की सेवा एक साथ प्रारम्भ की। सन् 1927 में उन्होंने बम्बई में ‘बहिष्कृत भारत’ नामक पाक्षिक पत्र निकाला। सन् 1930 में अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के अध्यक्ष बने तथा 1930-32 में दलितों के प्रतिनिधि बनकर लंदन में आयोजित प्रथम से तृतिये गोलमेज परिषद् में भाग लेने गये। वहाँ उन्होंने अछूतों कसो हिन्दू-समाज से पृथक प्रतिनिधित्व दिलाने में सफलता प्राप्त की।  लंदन में डॉ0 साहब ने भारत संबंधी मामलों के मंत्री ई0 एस0 मोंटगू और विट्ठल भाई पटेल से भेंट की और उनसे भारतीय अछूतों की कठिनाइयों के बारे में बातचीत की। इसके पश्चात् डॉ0 अम्बेडकर जी भारत में आये और जीवनपर्यन्त अछूतोद्वार का कंलक समाज से हटाने के लिए प्रयत्नशील रहे। यहीं से अम्बेडकर छात्र-जीवन से निकलकर सामाजिक और राजनीतिक जीवन में उतर आये।

अपने राजनीतिक जीवन को आगे बढ़ाते हुए अम्बेडकर ने अगस्त 1936 ई0 में ‘इंडिपैडेंट लेबर पार्टी’ का गठन किया। डॉ0 अम्बेडकर जूलाई 1942 ई0 में वाइसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किए गए। उस समय ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ चल रहा था। उसी समय निर्णायक गतिविधियाँ घटीं और पुरानी (आई. एल. पी.) को ‘ऑल इण्डिया शेड्यूल्ड कास्ट्स फैडरेशन’ में बदल दिया गया। अपने परिश्रम तथा बुद्धि के बल पर उन्होंने दिखा दिया कि किसी व्यक्ति की योग्यता इस बात पर निर्भर नहीं कि वह किस जाति, वर्ण में उत्पन्न हुआ है। इसका ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसे वह स्वयं प्रभावित नहीं कर सकता अथवा स्वयं उससे प्रभावित नहीं हो सकता।3 यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि लन्दन में अपने प्रवास के समय उन्होंने संसदीय प्रजातन्त्र, स्वतन्त्रता और उदारवाद के मूल्यों का गहराई से अध्ययन किया और इस अध्ययन को उपयुक्त समय पर भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पी के रूप में उसका आधार बनाने का उन्होंने भरसक यत्न किया। भारत के इतिहास में यह एक अनोखी घटना थी। कई सदियों की गुलामी के बाद जब भारत आजा़द हुआ, तो उसके संविधान को बनाने का महान और ऐतिहासिक काम एक अछूत-विद्वान को सौंपा गया। ये वे अछूत थे जिन्हें, बचपन में स्कूल में हिन्दू बच्चों के साथ बैठने की आज्ञा नहीं थी। बैलगाड़ी में बैठना मना था, प्यास लगने पर जिन्हें तालाब का गन्दा पानी भी पीने की आज्ञा न थी, अमेरिका से एम0 ए0 पास करके वापस आने पर जिनको बड़ौदा में रहने के लिए सथान मिला था, दफ्तरों में लेफ्टिनेंट के पद पर आसीन होने पर भी चपरासी अपने अफसर की छाया से दूर भागता था, नाइयों ने जिनकी हजामत करने से इनकार किया था, क्षुद्व-हृदय कांग्रेसियों ने ब्रिटिश का पिट्ठू कहकर जिनका अपमान किया था, पाखंडी हिन्दुओं ने जिन्हें गाँधीजी का जन्मजात शत्रु के नाम से पुकारा था सन् 1941 में वाइसराय के मंत्रीमंडल में एक्जीक्यूटिव कौन्सिलर बनने पर बामणवादियों ने जिन्हें देशद्रोही कहा था। डॉ0 अम्बेडकर को आज आजा़द भारत का प्रथम कानून-मंत्री (3 अगस्त, 1949) बनाया गया और उन्हीं के हाथों में संविधान की रचना की जिम्मेदारी सौंपी गई। हिन्दू-समाज के सुधार हेतु उन्होंने हिन्दू कोड अधिनियम पारित कराने के प्रयास किये जिनके विषय में मतभेद होने पर डॉ0  अम्बेडकर ने 27 सितम्बर, 1951 को मंन्त्रिमंण्डल से त्याग-पत्र दे दिया। हिन्दू-धर्म के साथ अपने स्वाभिमान का तालमेल न बैठते देखकर डॉ0 अम्बेडकर ने अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर, 1956 को बौद्ध-धर्म ग्रहण कर लिया।4 धनंजयकीर के शब्दों में यह एक महान् चमत्कार तथा संसार का आठवां आश्चर्य था, जिन्होंने एक दिन मनुस्मृति को आग के सुपुर्द किया था, उन्हीं के हाथों में सभी ने एकमत हो भारत के समाज की नींव डालने की जिम्मेदारी को स्वेच्छा से सौंपा।5 इस प्रकार, भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान सभा ने 29 अगस्त, 1947 को संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए सात सदस्यीय प्रारूप समिति का गठन किया था जिसके अध्यक्ष डॉ0 अम्बेडकर थे। अन्यों में अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर, एन0 माधवराव, सैय्यद सा-दुल्ला और बी0 एन0 रा मेम्बर थे। समिति के सात सदस्यों में से वे ही एकमात्र सदस्य थे जिन्होंने संविधान निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई थी, जिसके कारण उन्हें ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा दी जाती है। दुर्भाग्यवश, 6 दिसम्बर 1956 के सवेरे श्रीमती अम्बेडकर जब रोजमर्रा की तरह सोकर उठी तो उन्होंने पाया कि डॉ0 अम्बेडकर दुनिया में नहीं रहे। सोते-सोते ही वे परलोक सिधार गए। बौद्ध धर्माचार्यों द्वारा दादर हिन्दू शव दाह-गृह पर उनका दाह संस्कार लाखों लोगों की उपस्थिति में सम्पन्न कराया गया। इस अवसर पर श्मशान में ही एक लाख से अधिक लोगों ने बौद्ध मत स्वीकार किया।6 उनकी मृत्यु पर पं. नेहरू ने कहा था, ‘‘हिन्दू समाज में विद्यमान सभी अत्याचारपरक बातों के विरुद्ध सशक्त विद्रोह के प्रतिक के रूप में उन्हें स्मरण किया जाएगा।’’ बर्मा के प्रधानमंत्री ऊ नू ने कहा, ‘‘वह उन व्यक्तियों में से थे जिन्होंने समाज-सुधार की प्रक्रिया को त्वरित गति प्रदान की।’’ इस वीर, साहसी जुझारू नेता को भारत के राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद, सी0 राजगोपालाचारी,, (भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल) तथा वी0 डी0 सावरकर ने भी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। भारत सरकार द्वारा प्रदेय सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न से उन्हें 14 अप्रैल, 1990 को मरणोपरान्त सम्मनित किया गया। 1990-91 में उनकी जन्म शताब्दी ‘सामाजिक न्याय वर्ष’ के रूप में मनाई गई।

डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने देश के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का गहन अध्ययन किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू धर्म के चतुवर्ण से उपजी अस्पृश्यता ही दलित वर्ग के पिछड़ेपन का मूल कारण है। उन्होंने दलितों को प्रेरणा दी कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजें। उनका विचार सामाजिकता की आवश्यकता के पक्ष में था। अतः छुआछूत को मिटाने के लिए मैदान में आकर लड़ने का फैसला किया, और 1927 में महाड़ में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया। इसके बाद ‘चारदार तालाब’ से सामूहिक रूप से पानी पिया गया, जहाँ अछूतों को पानी पीने की इजाजत नहीं थी। इसके बाद उन्होंने गुजरात में कालाराम मन्दिर में प्रवेश सत्याग्रह (1930), धर्मांतरण की घोषणा (1935)7 आदि का नेतृत्व किया। अधिकांशः इतिहासकार यह मानते थे कि चतुर्वर्ण की व्यवस्था श्रम-विभाजन के आधार पर हुई थी, पर डॉ0 भीमराव अम्बेडकर इससे सहमत न थे। उनका कहना था कि अगर ऐसा ही था, तो दुनियां के और देशों में इस तरह की व्यवस्था क्यों नहीं हुई ? विदेशी शासन से मुक्ति के संघर्ष में डॉ0 अम्बेडकर अन्य राष्ट्रीय नेताओं से पीछे न थे। वे यह मानते थे कि स्वराज्य मिलने पर ही सामाजिक समानता लाने की दिशा में समुचित प्रगति हो सकती है। 1930 में प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि अंग्रेज भारत में अछूतों की स्थिति में कोई भी सुधार करने में असमर्थ रहे हैं। दलितों को सार्वजनिक कुओं या तालाबों से पानी लेने पर मनाही है। पुलिस सेवा के द्वार भी उसके लिए बन्द हैं।

डॉ0 अम्बेडकर को अछूतोद्वार की प्रेरणा उन अपमानजनक एवं अप्रतिष्ठित घटनाओं से मिली जिनका सामना उन्होंने स्वयं अपने छात्र जीवन से करना प्रारम्भ किया था। अमेरिका, ब्रिटेन एवं जर्मनी के विश्वविद्यालय मे उच्च शिक्षा ग्रहण कर लेने के बाद भी वे अछूत होने के कलंक को अपने सिर से हटा न सके। बड़ौदा राज्य में वे अपनी नौकरी को इसीलिए जारी न रख पाये यहां तक कि अस्पृश्यता उनके निवास में बाधा बन गई।

डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने वर्णाश्रम व्यवस्था (समाज के चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र) को जन्म देने वाली मनुस्मृति का अस्पृश्य समाज के कुछ साधुओं द्वारा दाह संस्कार करवाया। उन्होंने येवला सम्मेलन में प्रतिज्ञा ली थी  कि ‘‘मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योंकि यह मेरे हाथ में नहीं था, परन्तु मैं हिन्दू धर्मावलम्बी रहकर नहीं मरुँगा।’’ अम्बेडकर ने तीन महापुरुषों को अपना प्रेरणा स्रोत माना है। उनमें पहले कबीर, दूसरे महात्मा ज्योतिबा फूले और तीसरे थे भगवान बुद्ध। वे एक भिन्न प्रकार से रामायण एवं महाभारत से भी प्रभावित हुए।8 कबीर ने उन्हें भक्ति भावना प्रदान की, ज्योतिबा फूले ने उन्हें ब्राह्मण विरोध अछूतों को संगठित करने, अत्याचार से लोहा लेने के लिए प्रेरित किया, सामूहिक पश्चाताप का विचार दिया और शिक्षा तथा आर्थिक उत्थान का संदेश दिया। गौतम बुद्व से उन्हेंने करुणा, आध्यात्मिकता एवं अस्पृश्यता का विरोध लिया। वे पाश्चात्य संस्कृति विशेषतः जॉन ड्यूव, वूकर टी0 वाशिगटन आदि से बहुत प्रभावित हुए। उनकी वेशभूषा, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विवेक, नैतिकता एवं उदारवाद की गहरी छाप थी।9 इस प्रकार ने उन्हें मानसिक और दार्शनिक प्यास बुझाने वाला अमृत मिला और अछूतों के उद्वार का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, जिसका माध्यम था सामूहिक धर्म परिवर्तन।

उनके व्यक्तित्व के निर्माण में अनेक तत्वों ने योगदान किया। उनको आधुनिक एवं सभ्य जीवन जीने का मार्ग अमेरिका और इंग्लैण्ड में प्राप्त पश्चिमी शिक्षा से मिला। बुद्व ने वास्तविक धर्म नैतिकता और लोकतन्त्र की दिशा दिखायी। कबीर ने उनमें एक मनुष्य के रूप में सोचने की ज्योति जलाई। यदि ज्योतिबा फुले ने उनको शुद्वों की समस्याओं का समाधान बताया तो डॉन ड्यूव ने उन्हें व्यावहारिक चिन्तन पद्धति प्रदान की। इसी तरह, कार्ल मार्क्स ने अस्पृश्यता का आर्थिक पक्ष निर्देंशित किया। यद्यपि वे गाँधी के विरोधी रहे किन्तु उन्होंने उनसे भी सत्याग्रह की आन्दोलनात्मक पद्धति, उदार राष्ट्रवाद एवं अन्तर्राष्ट्रहियता के मौलिक तत्त्व ग्रहण किये। डॉ0 अम्बेडकर, इस तरह विविध स्रोत एवं प्रभावों से शक्ति ग्रहण करते हुए ‘अछूतोद्धार तथा नये भारत के पुनर्निर्माण’ के महानतम योद्धा बन गये।

दलितोद्धार के क्षेत्र में उन्हें महान अमेरिकी नीग्रो नता पॉल राबसन के समान माना जाता है। ‘मेरे दुःख-दर्द और मेहनत को तुम नहीं जानते, जब सुनोगे, तो रो पड़ोगे।’ इस कथन में डॉ0 अम्बेडकर के अछूतों के मसीहा बनने की कहानी छिपी हुई है। उन्होंने ब्राह्मणवाद, सवर्णों एवं उच्च जातियों के दम्भ और पाखण्ड के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। किन्तु इस संघर्ष को उन्होंने प्रचार, आन्दोलन, शास्त्रार्थ, कानूनी लड़ाई, राजनीतिक दाँवपेच और अहिंसा की सीमाओं के दायरे तक सीमित रखा। फिर भी उनका दलितोद्धार-अभियान, बौद्ध धर्म, सिख-पंथ, कबीर, ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज, विवेकानंद और गाँधी से अधिक प्रभावी एवं रचनात्मक था।

डॉ0 अम्बेडकर एक ऐसे व्यक्ति थे जो जन्मजात विद्रोही थी। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण जिन्दगी दलितों की स्थिति को सुधारने में और उनको सम्मानपूर्ण जिन्दगी व्यतीत कराने के प्रयासों में लगा दी। धर्म के बारे में और समाज में उसकी भूमिका के बारे में उन्होंने गम्भीरता से चिन्तन-मनन किया। डॉ. अम्बेडकर सनातन धर्म के अग्रणी लोकमान्य तिलक की धर्म की परिभाषा ‘‘जिसमें सारी प्रजा की धारणा होती है, उसे धर्म कहते हैं’’ से असहमति दिखायी और कहा कि, ‘जिन सामाजिक मूल्यों और रीति-रिवाजों पर व्यवहार चलता है, वही धर्म है। ये मूल्य और रीति-रिवाज ही वे बन्धन है जो व्यक्ति को समाज से बांधे रखते है। इसलिए धर्म की व्याख्या से अधिक महत्वपूर्ण उन बन्धनों को जानना है, जो समाज का योग्य संचालन करते है।’’ इसी प्रकार धर्म को अम्बेडकर ने जनता के उत्थान के साथ जोड़ा और यह मत व्यक्त किया कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। सच्चा धर्म वह है जो आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारित हो।’’10 उन्होंने सच्चे धर्म की चार विशेषताएँ बताईः11

धर्म को नैतिकता के रूप में मानव समाज का आधार होना चाहिए।

धर्म को विज्ञान अथवा बौद्धिक तत्व पर आधारित होना चाहिए।


धर्म को चाहिए कि वह न केवल नैतिक संहिता को स्वीकार करे बल्कि स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृ-भाव को सामाजिक जीवन को अनुशासित करने के लिए मौलिक सिद्धान्त मानें।धर्म को निर्धनता की स्थिति का पवित्रीकरण नहीं करना चाहिए, भले ही कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी धन-सम्पत्ति को समाज-कल्याण में अर्पित कर दे।

इस प्रकार उपरोक्त चारों विशोषताएँ डॉ0 अम्बेडकर के धर्म के प्रति विचार-दर्शन को स्पष्ट करती हैं। वे मुख्यतः धर्म को मनुष्य के मन को शुद्ध बनाने का एक माध्यम मानते है और उसे वैयक्तिक मानते हुए मात्र व्यक्ति तक सीमित मानते हैं।

डॉ0 अम्बेडकर को कागज के कुछ पन्नों तक सीमित नहीं किया जा सकता उनके जीवन के कई सुलझे-असुलझे रहस्यों पर हमारी दृष्टी नहीं पड़ सकी है। परन्तु जो ज्ञान हमें प्राप्त है उसके आधार पर हम इस निष्कर्ष तक पहुचते है कि,  डॉ. अम्बेडकर एक प्रखर बुद्धि सम्पन्न विद्वान थे। आपने दलित चेतना की मशाल को प्रज्वलित कर दलित उत्पीड़न, शोषण के साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न की। आपके जागृत प्रयासों एवं कृत्यों के लिए ही आपको ‘दलितां का मशीहा’ कहा जाता है। आपने हिन्दू सामाजिक संगठन, शिक्षा व्यवस्था, प्रशासन, भारतीय विश्वविद्यालयों की पुर्नगठन, भारतीय विधि व्यवस्था, सामाजिक सुधार, भारतीय राजनीति को पुर्नगठन, आर्थिक पुर्नरचना, शुद्ध मानवीय मूल्यों पर आधारित दर्शन, स्वतंत्रता, समानता, जाति व्यवस्था, धर्म एवं धार्मिक कर्मकाण्डों आदि पर गहन चिंतन और लेखन कार्य किया । डॉ0 अम्बेडकर ने अपने लेखन में स्पष्ट एवं सशक्त भाषा का उपयोग किया । साथ ही ‘‘नियमों के धर्म’’ के स्थान पर सच्चे धर्म, अर्थात् ‘‘सिद्धान्तों के धर्म’’ (रिलिजन ऑफ प्रिंसिपल्स) के स्थापना पर बल दिया। डॉ0 भीमराव रामजी अम्बेडकर के सामाजिक चिन्तन में एक तरफ वर्ण व्यवस्था, जाति-प्रथा, अस्पृश्यता, असमानता और अन्याय के प्रति विद्रोह मिलता है, तो दूसरी ओर सामाजिक पुनर्रचना के लिए उसमें साकारात्मक तत्व भी सन्निहित है।


सन्दर्भ ग्रन्थ-

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  2. B. R. Ambedkar was the 14th child of his parents.“Bhim Rao Ambedkar and Education- an article by Dr. Ram Kishore Misra contributed in “Bharat Ratna- Dr. Ambedkar” by R. B. Rao.
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कांशीराम जीवन परिचय  KANSHI RAM BIOGRAPHY जन्म : 15 मार्च 1934, रोरापुर, पंजाब मृत्यु : 9 अक्तूबर 2006 व्यवसाय : राजनेता बहुजन समाज को जगाने बाले मान्यबर कांशीराम साहब का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के ख़्वासपुर गांव में एक सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हरीसिंह और मां श्रीमती बिशन कौर थे। उनके दो बड़े भाई और चार बहनें भी थी। बी.एस.सी स्नातक होने के बाद वे डीआरडीओ में बेज्ञानिक पद पर नियुक्त हुए। 1971 में श्री दीनाभाना एवं श्री डी के खापर्डे के सम्पर्क में आये। खापर्डे साहब ने कांशीराम साहब को बाबासाहब द्वारा लिखित पुस्तक "An Annihilation of Caste" (जाति का भेद विच्छेदन) दी। यह पुस्तक साहब ने रात्रि में ही पूरी पढ़ ली।और इस पुस्तक को पढ़ने के बाद सरकारी नोकरी से त्याग पत्र दे दिया। उसी समय उंन्होने अपनी माताजी को पत्र लिखा कि वो अजीबन शादी नही करेंगे। अपना घर परिबार नही बसायेंगे। उनका सारा जीवन समाज की सेवा करने में ही लगेगा। साहब ने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि उनका उनके परिबार से कोई सम्बंध नही रहेगा। बह कोई सम्पत्ति अपने नाम नही बनाय...

भारतीय संस्कृति एवं महिलायें (Indian culture and women) Bharatiya Sanskriti evam Mahilayen

-डॉ0 वन्दना सिंह भारतीय संस्कृति एवं महिलायें  Indian culture and women संस्कृति समस्त व्यक्तियों की मूलभूत जीवन शैली का संश्लेषण होती है मानव की सबसे बड़ी सम्पत्ति उसकी संस्कृति ही होती है वास्तव में संस्कृति एक ऐसा पर्यावरण है जिसमें रह कर मानव सामाजिक प्राणी बनता हैं संस्कृति का तात्पर्य शिष्टाचार के ढंग व विनम्रता से सम्बन्धित होकर जीवन के प्रतिमान व्यवहार के तरीको, भौतिक, अभौतिक प्रतीको परम्पराओं, विचारो, सामाजिक मूल्यों, मानवीय क्रियाओं और आविष्कारों से सम्बन्धित हैं। लुण्डवर्ग के अनुसार ‘‘संस्कृति उस व्यवस्था के रूप में हैं जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को संरचित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों  आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते है।  प्रस्थिति का व्यवस्था एवं भूमिका का निर्वहन कैसे किया जाये यह संस्कृति ही तय करती है किसी भी समाज की अभिव्यक्ति संस्कृति के द्वारा ही होता है। भारतीय संस्कृति एक रूप संस्कृति के एक रूप में विकसित न  होकर मिश्रित स...

युवा विधवाएं और प्रतिमानहीनता (Young Widows in India)

युवा विधवाएं और अप्रतिमानहीनता भारत में युवा विधवाएं  ‘‘जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते है’’ ऐसी वैचारिकी से पोषित हमारी वैदिक संस्कृति, सभ्यता के उत्तरोत्तर विकास क्रम में क्षीण होकर पूर्णतः पुरूषवादी मानसिकता से ग्रसित हो चली है। विवाह जैसी संस्था से बधे स्त्री व पुरूष के सम्बन्धों ने परिवार और समाज की रचना की, परन्तु पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री का अकेले जीवन निर्वहन करना अर्थात विधवा के रूप में, किसी कलंक या अभिशाप से कम नहीं है। भारतीय समाज में बाल -विवाह की प्रथा कानूनी रूप से निषिद्ध होने के बावजूद भी अभी प्रचलन में है। जिसके कारण एक और सामाजिक समस्या के उत्पन्न होने की संभावना बलवती होती है और वो है युवा विधवा की समस्या। चूंकि बाल-विवाह में लड़की की उम्र, लड़के से कम होती है। अतः युवावस्था में विधवा होने के अवसर सामान्य से अधिक हो जाते है और एक विधवा को अपवित्रता के ठप्पे से कलंकित बताकर, धार्मिक कर्मकाण्ड़ों, उत्सवों, त्योहारों एवं मांगलिक कार्यों में उनकी सहभागिका को अशुभ बताकर, उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन को पूर्ण रूपेण प्रतिबंध...